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________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित १५५ मुझे व्रतों के विषय में तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र (अ शब्द से तपाचार, वीर्याचार, संलेखना तथा सम्यक्त्व) की आराधना के विषय में सक्ष्म या बादर (छोटा या बड़ा) जो अतिचार लगा (व्रतमें स्खलना या भूल हुई) हो, उसकी मैं (आत्मसाक्षी से) निंदा करता हुँ और (गुरुसाक्षी से) गर्दा (अधिक निंदा) करता हुँ । (२) (परिग्रहके अतिचार) दुविहे परिग्गहम्मि, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे कारावणे अ करणे, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (३) सचित व अचित (अथवा बाह्य-अभ्यंतर) दो प्रकार के परिग्रह के कारण पापमय अनेक प्रकार के आरंभ (सांसारिक प्रवृत्ति) दुसरे से करवाते हुए और स्वयं करते हुए (तथा करते हुए की अनुमोदना से) वर्ष संबंधी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों उन सबसे मैं निवृत्त होता हुँ । (३) (ज्ञानके अतिचार) जं बद्ध मिंदि ए हिं, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि। (४) अप्रशस्त (अशुभ कार्य में प्रवृत्त बनी हुई) इन्द्रियों से, चार कषायों से, (तीन योगों) तथा राग और द्वेष से, जो (अशुभ-कर्म) बंधा हो, उसकी मैं निंदा करता हुँ, उसकी मैं गर्दा करता हुँ । (४) (सम्यग् दर्शनके अतिचार) आगमणे, निग्गमणे, ठाणे, चंकमणे, अणाभोगे; अभिओगे अनिओगे, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (५)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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