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________________ Svayambhūstotra परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। (2) I bow to anekānta (the doctrine of manifold points of view – relative pluralism), the root of unmatched Jaina Scripture, that reconciles the partial viewpoints of men, born blind, about the elephant, and which removes all contradictions about the nature of substances by apprehending the ultimate reality through multiplicity of viewpoints. अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥ ____ (5-2-22) सामान्यार्थ - हे सुमतिनाथ ! जीवादि तत्त्व अनेक स्वभाव रूप है तथा वही जीवादि तत्त्व एक रूप भी है क्योंकि अपनी सर्व पर्यायों में वही एक द्रव्य है। यह भेद ज्ञान और अभेद ज्ञान अर्थात् पर्याय की अपेक्षा अनेकपने का ज्ञान व द्रव्य की अपेक्षा एकपने का ज्ञान सत्य है, बाधा रहित है। यथार्थ वस्तु स्वरूप को एक रूप मानने वाले अनेक रूप को उपचार कहें व अनेक रूप मानने वाले एक रूप को उपचार कहें तो यह मिथ्या ही है। क्योंकि इनमें से किसी एक स्वभाव का लोप कर देने से अर्थात् सर्वथा एक रूप व सर्वथा अनेक रूप मानने से उस शेष दूसरे का लोप हो जाएगा (क्योंकि द्रव्य पर्याय के बिना नहीं रहता और पर्याय द्रव्य के बिना नहीं रहती)। तब वस्तु का स्वभाव मिट जाने से वस्तु का कथन भी नहीं बन सकेगा। इससे यही मत ठीक है कि वस्तु भेद व अभेद उभय स्वरूप एक काल में अवस्थित है। यही आपका यथार्थ मत है। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 30
SR No.007721
Book TitleSwayambhustotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year2015
Total Pages246
LanguageEnglish, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size3 MB
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