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________________ है। उन्होंने लिखा है इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्याडिव्याकरणेक्षिणः । देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥ अर्थात् जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरण का अवलोकन करनेवाली है, ऐसी देववन्द्य देवनन्दि आचार्य की वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ! उनके साहित्य की यह स्तुति - परम्परा धनंजय, वादिराज आदि प्रमुख आचार्यों द्वारा भी अनुभूति हुई। आचार्य पूज्यपाद की ज्ञानगरिमा और महत्ता का उल्लेख उक्त स्तुतियों में विस्तृत रूप से आया है। इस प्रकार आचार्य पूज्यपाद अपने समय में एक प्रसिद्ध आचार्य हुए, जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना कर स्व-पर कल्याण किया है। 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ में 51 श्लोकों द्वारा जिन-अध्यात्म का सार समझाया गया है, इसमें व्यक्त किए गए भाव बहुत गम्भीर एवं चिंतन-मनन करने योग्य हैं। जैसे कि यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ॥19॥ जो जीव के लिए उपकारी है वह देह के लिए अपकारक है और जो देह के लिए अपकारक है वह जीव के लिए उपकारी है। ‘इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ को सामान्य व्यक्ति भी पढ़ कर आत्मकल्याण कर सकता है। जीवन और जगत् के रहस्यों की व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापार के प्रेरक, प्रयोजनों और उसके उत्तरदायित्व की सांगोपांग विवेचना आचार्य पूज्यपाद के ग्रन्थों का मूल विषय है। उनके वैदुष्य का अनुमान ‘सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ से किया जा सकता है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनों की समीक्षा कर इन्होंने अपनी विद्वत्ता प्रकट की है। निर्वचन और पदों सार्थकता के विवेचन में आचार्य पूज्यपाद की समकक्षता कोई नहीं कर सकता है। आचार्य पूज्यपाद अपने समय के एक प्रसिद्ध कवि, लेखक, व्याकरणाचार्य हुए। इन्होंने स्तोत्र, स्तुति, जैनेन्द्र व्याकरण, इष्टोपदेश आदि अनेक ग्रन्थों की रचना कर मुमुक्षु जीवों का कल्याण किया है। ‘इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद श्री विजय कुमार जैन एवं प्रकाशक विकल्प प्रिंटर्स द्वारा किया जा रहा है। यह आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए अध्ययन-अध्यापन में एक महत्त्वपूर्ण कृति होगी। इस प्रकाशन कार्य हेतु अनुवादक और प्रकाशक को मेरा मंगल शुभाशीर्वाद । मार्च 2014 कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली (vi) शुभाशीर्वाद आचार्य विद्यानन्द मुनि
SR No.007695
Book TitleIstopadesa The Golden Discourse
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year
Total Pages170
LanguageEnglish, Sanskfit
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size3 MB
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