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________________ जहा को दिटतो ? से जहाणामए मंचे सिया आमलगाणं भरिते, तत्थ णं एगे आमलए पक्खित्ते से माते, * अण्णे वि पक्खित्ते से वि माते, अन्ने वि पक्खित्ते से वि माते, एवं पक्खिप्पमाणे २ होही से आमलए जम्मि पक्खित्ते से मंचए भरिजिहिइ जे वि तत्थ आमलए न माहिति। ५०८. (प्र.) उत्कृष्ट संख्यात कितना है? (उ.) उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा इस प्रकार करूँगा-(असत्कल्पना से) जैसे एक लाख ' योजन लम्बा-चौड़ा और तीन लाख सोलह हजार दो सो सत्ताईस योजन, तीन कोश, अट्ठाईस सौ धनुष एवं साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला कोई एक (अनवस्थित नामक) पल्य (कोठा/कुओं) हो। रत्नप्रभापृथ्वी इस पल्य को सर्षपों-सरसों के दानों से भर दिया जाये। उन सर्षपों से द्वीप और समुद्रों का उद्धार (परिमाण) जाना जाता है अर्थात् उन सर्षपों में से एक को द्वीप (जम्बूद्वीप) में, एक को समुद्र (लवण-समुद्र) में फिर एक द्वीप में, एक समुद्र में इस क्रम से गिराते जाने से उन दानों से जितने द्वीप-समुद्र भर जायें-(व्याप्त हो जायें) उतने क्षेत्र का अनवस्थित पल्य बुद्धि से परिकल्पित करके उस पल्य को सरसों के दानों से भर दिया जाये। तदनन्तर उन सरसों के दानों से द्वीप-समुद्रों की संख्या का प्रमाण जाना जाता है। अनुक्रम से एक द्वीप में और एक समुद्र में इस तरह गिराते हुए जितने द्वीप-समुद्र उन सरसों के दानों से भर जायें, उनके समाप्त होने पर एक दाना शलाकापल्य में डाल दिया जाये। इस प्रकार के शलाका रूप पल्य में भरे सरसों के दानों से असंलप्यअकथनीय लोक भरे हुए हों तब भी उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त नहीं होता है। इसके लिए कोई दृष्टान्त है ? (जिज्ञासु ने पूछा।) (आचार्य ने उत्तर दिया)-जैसे कोई एक मंच (मचान) हो और वह ऑवलों से भरा हो, वहाँ एक ऑवला डाला तो वह भी समा गया, दूसरा डाला तो वह भी समा गया, " तीसरा डाला तो वह भी समा गया, इस प्रकार उन्हें डालते-डालते अन्त में एक ऑवला ऐसा होगा कि जिसके डालने से मंच पूर्ण भर जाता है। उसके बाद वहाँ ऑवला नहीं समाता है। (इसी प्रकार बारम्बार डाले गये सरसों से जब असंलप्य-बहुत से पल्य नीचे से ऊपर तक भर जायें, उनमें एक सरसों जितना भी स्थान खाली न रहे तब उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त होता है।) विवेचन-प्रस्तुत सूत्रो मे सख्यात गणनासख्या के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-इन तीनो भेदो का स्वरूप बताया है। जघन्य संख्यात-दो की सख्या जघन्य संख्यात है। संख्याप्रमाण-प्रकरण (371) The Discussion on Samkhya Pramana Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007656
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages627
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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