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________________ २८५. तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जाव वियालचारि च वियाणित्ता विउलेहिं अन्नभोगेहि य पाणभोगेहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सयणभोगेहि य उवनिमंतिहिति। २८५. तब उस दृढप्रतिज्ञ बालक को, बाल्यावस्था से मुक्त, निर्भयतापूर्वक विचरने में समर्थ हुआ जानकर माता-पिता विपुल अन्नभोगों, पानभोगों (खाने-पीने), प्रासादभोगों, वस्त्रभोगों और शय्याभोगों-गृहस्थ जीवन के भोगों को भोगने के लिए आमंत्रित करेंगे। (अर्थात् माता-पिता उसे भोगसमर्थ जानकर कहेंगे कि हे चिरंजीव ! तुम युवा हो गये हो अतः अब कामभोगों की इस विपुल सामग्री का भोग करो।) ____285. Then finding that Dridh Pratijna is no longer in his childhood and that he is capable of moving freely and independently in the world, his parents shall invite him to enjoy the household life, the tasty food, drinks, palatial residence, the decent clothes, bedding and suchlike. In other words his parents will tell him that he has reached his youth and so he should enjoy sensual pleasures. दृढप्रतिज्ञ की अनासक्ति __ २८६. (क) तए णं दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अन्नभोएहिं जाव सयणभोगेहिं णो सज्जिहिति, णो गिज्झिहिति, णो मुच्छिहिति, णो अज्झोववज्जिहिति, से जहा णामए पउमुष्पले ति वा पउमे इ वा जाव सयसहस्सपत्तेति वा पंके जाते जले संवुड्ढे णोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहिं जाते भोगेहिं संवडिए गोवलिप्पिहिति. मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरिजणेणं। २८६. (क) तब वह दृढप्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्नरूप (भोजन सामग्री) भोग्य * पदार्थों यावत् शयनरूप भोग्य पदार्थों (सुख साधनों) में आसक्त नहीं होगा, गद्ध नहीं होगा, मूर्च्छित नहीं होगा और अनुरक्त नहीं होगा। अर्थात् उनके प्रति आकर्षित नहीं होगा। जैसे * कि नीलकमल, पद्मकमल (सूर्यविकासी कमल) यावत् शतपत्र या सहस्रपत्र कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं और जल में बढ़ते हैं, फिर भी कीचड़ और जल-कणों से लिप्त नहीं होते हैं, a निर्लेप रहते हैं। इसी प्रकार वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक भी कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों के बीच लालन-पालन किये जाने पर भी उन कामभोगों में एवं मित्रों, ज्ञातिजनों, निजी-स्वजन-सम्बन्धियों और परिजनों में अनुरक्त नहीं होगा। - दृढ़प्रतिज्ञकुमार (423) Dridh Pratyna Kumarx Orgs Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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