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________________ 2554 0 - 5 ! 4 5 6 45 46 45 46 47 46 26 45 46 4 5 6 45 46 4 5 ନ ନ ! I 5 45 46 47 4 5 6 55 FIPLE ELE LE LIE LIE LE LE LE LE LE LE LE LE VE VE 45 46 46 45 46 46 45 45555555550 7. Bhava dvar (the parameter of mode), and 8. Alpabahutva dvar (the parameter of less and more). In order to fully understand these eight primary parameters each one of them is further divided into 15 secondary parameters— 51. Kshetra, 2. Kaal, 3. Gati, 4. Ved, 5. Teerth, 6. Ling, 7. Charutra, F 8. Buddha, 9. Jnana, 10. Avagahana, 11. Utkrisht, 12. Antar, 13. Anusamaya, 14. Samkhya, and 15. Alpabahutva. (१) आस्तिक द्वार अथवा सत्पदप्ररूपणा सिद्ध के अस्तित्व में आस्था के बिना अध्यात्म मार्ग की यात्रा का आरम्भ ही नहीं होता है। अतः सिद्ध पद अथवा सत्पद की स्थापना प्रथम द्वार है। इसे भलीभाँति समझने के लिए १५ उपद्वार इस प्रकार हैं 1. ASTIK DVAR OR SATPADPRARUPANA (THE PARAMETER OF RIGHT FAITH) (१) क्षेत्र द्वार - अढाई द्वीप में रही १५ कर्मभूमियों से जीव सिद्ध गति को प्राप्त होते हैं । संहरण (एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर लाना) की अपेक्षा से दो समुद्र, अकर्मभूमि, अन्तरद्वीप, ऊर्ध्वदिशा में पाण्डुकवन, अधोदिशा में अधोगामिनी विजय से भी जीव सिद्ध होते हैं। (२) काल द्वार - अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के अन्तिम चरण से आरम्भ कर सम्पूर्ण चौथे आरे में तथा पाँचवें आरे के ६४ वर्ष बीतने तक सिद्ध हो सकते हैं। उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में और चौथे आरे के कुछ काल में सिद्ध हो सकते हैं। (३) गति द्वार - केवल मनुष्य गति से सिद्ध हो सकते हैं अन्य गति से नहीं। इसमें भी पहली चार नरक भूमियों, पृथ्वी - जल और बादर वनस्पति-काय, संज्ञी तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय, मनुष्य, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवलोकों से निकले जीव मनुष्य जन्म लेकर सिद्धगति प्राप्त कर सकते हैं। (४) वेद द्वार - वर्तमान काल की अपेक्षा वेदरहित जीव ही सिद्ध होते हैं। पहले चाहे उन्होंने तीनों वेदों का अनुभव किया हो (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद) । (५) तीर्थ द्वार - सामान्यतया अधिकांशतः सिद्ध तीर्थंकर के शासनकाल में ही होते हैं । अतीर्थ सिद्ध यदा-कदा ही होते हैं। श्री नन्दी सूत्र (६) लिंग द्वार - द्रव्यतः स्वलिंगी ( श्रमण वेशधारी), अन्यलिंगी ( अन्य वेशधारी) तथा गृहलिंगी (गृहस्थ) सिद्ध होते हैं किन्तु भावतः स्वलिंगी सिद्ध ही होते हैं, अन्य नहीं। ( १३४ ) Jain Education International For Private Personal Use Only Shri Nandisutra 55555555 फ्र www.jainelibrary.org
SR No.007652
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1998
Total Pages542
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_nandisutra
File Size19 MB
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