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________________ [ द्वितीय चूलिका : विविक्त चर्या । - प्राथमिक प्रथम रतिवाक्या चूलिका में श्रमण को अपनी श्रमणचर्या में स्थिर रहने की प्रेरणा दी गई है। इसके बाद उसकी श्रमणचर्या को निर्मल और निर्विघ्न रखने के लिए इस चूलिका में उसकी चर्या, गुण एवं नियमों का निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम विविक्त चर्या है। इसमें बताया गया है-नियतवास न करना, एकान्तवास करना व सामुदानिक भिक्षा लेनायह चर्या है। पाँच महाव्रत-मूलगुण हैं, पौरुषी आदि प्रत्याख्यान उत्तरगुण हैं। स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि नियम हैं। इस प्रकार चर्या, गुण तथा नियमों-तीनों में जागरूक होकर शुद्ध पालन करना, सूत्र में बताई हुई विधि और मार्ग का अनुसरण करना-यह इस चूलिका का मुख्य प्रतिपाद्य है। ___ इस चूलिका में लोक-प्रवाह की अन्ध प्रवृत्ति पर प्रहार करते हुए कहा है, जो प्रतिस्रोत में प्रवाह के विरुद्ध अपने विवेकानुसार चलता है, वही श्रेष्ठ साधक है। इस अध्ययन के अन्त में सम्पूर्ण सूत्र के उपदेश का उपसंहार करते हुए कहा है-अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो-अपनी आत्मा की सदा रक्षा करनी चाहिए। यही उपदेश और आचार विधि का सार है। क्योंकि असुरक्षित आत्मा संसार के जन्म-मरण पथ में भटकती हैं और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाती हैं। बस यही इस सम्पूर्ण शास्त्र का नवनीत है। D PAN द्वितीय चूलिका : विविक्त चर्या Second Addendum : Vivitta Chariya ३७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007649
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1997
Total Pages498
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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