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________________ वह यदि अपने निदान की आलोचना-प्रतिक्रमण करके शुद्ध न हों और देह त्याग करें तो देवर्गात प्राप्त करके देव बनते हैं। वहाँ के सुख भोगते हैं। आयु पूर्ण होने पर उच्च कुलीन मानव बनते हैं। यहाँ भी मुख भोगते हैं। लेकिन वे दुर्लभवोधि होते हैं । केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा-प्रतीति नहीं करते और दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। यह निदान का दुष्फल है। छठा निदान प्रज्ञप्त धर्म के अनुसार तप, संयम, ब्रह्मचर्य की परिपालना करता हुआ कोई श्रमण-श्रमणी. काम-भोगों उद्दीप्त होकर यह सोचता है- ऊपर देवलोक है, वहाँ देवगण मनमानी अनंग क्रीड़ाएँ करते हैं । " ऐसा सोचकर कोई श्रमण- श्रमणी निदान करता है - " मैं देवरूप में उत्पन्न होकर अपनी एवं अन्य देवियों के साथ दिव्य भोग भोगूँ।" इस निदान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही मृत्यु पाकर वह देव बनता है. स्वयं के विकुर्वित देव-देवियों और अपनी देवियों के साथ दिव्य सुख भोगता है। वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर उच्च कुलीन मानव बनकर सुख भोगता है। वह केवलज्ञप्त धर्म को सुनता है, समझता है; किन्तु उस पर श्रद्धा-प्रतीति नहीं करता। वह अन्य धर्मो धर्माचार्यों में रुचि रखता है। आयु पूर्ण कर वह किसी असुर स्थान में किल्विषिक देव बनता है। वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर भेड़-बकरे के समान गूंगे-बहरे के रूप में जन्म धारण करता है । यह निदान का कटु परिणाम है। सातवाँ निदान केवलप्रज्ञप्त धर्म के अनुसार कोई श्रमण श्रमणी तप संयम ब्रह्मचर्य की आराधना करता है। वह दिव्य काम-भोगों का निदान करता है-"मेरे तप-संयम का फल हो तो मैं दिव्य सुख भोगूँ ।" निदान की आलोचना किये बिना वह देह त्याग करके देवलोक में उत्पन्न होता है। स्वयं के विकुर्वित देव-देवियों के साथ अनंग क्रीड़ा करता है. अन्य देव -देवियों के साथ नहीं करना । देवायु समाप्त होने पर वह उच्च कुल में जन्म लेता है. उत्तम सुख भोगता है. सर्वज्ञ प्रणीत धर्म पर श्रद्धा रखता है. लेकिन श्रावक व्रत ग्रहण नहीं कर सकता। वह सिर्फ दर्शन - श्रावक रहता है। मनुष्यायु समाप्त होने पर वह किसी देवलोक में देव बनता है। आठवाँ निदान कोई श्रमण श्रमणी केवलिप्रज्ञप्त धर्म के अनुसार तप-संयम की आराधना करता है। उसे मनुष्य-संबंधी काम-भोगों से अरुचि हो जाती है। वह विचार करता है - "मनुष्य-संबंधी रोग निस्मार हैं, क्षणिक हैं. त्याज्य हैं। दिव्य काम भोग भी संसार बढ़ाने वाले हैं। " ४०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only अन्तकृदशा महिमा www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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