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________________ वह आहार. शरीर, मन, वाणी. आसन आदि का नियमन करके मन-वचन-काय योग को वश में करना है और दृढ़तापूर्वक प्रतिमाओं की साधना में प्रवृत्त होता है। भिक्षु प्रतिमाओं की संख्या भिक्षु (श्रमण मुनि) की प्रतिमाएँ संख्या में १२ हैं जिनकी वह साधना क्रमशः करता है। साथ ही यह भी आवश्यक नहीं है कि प्रथम प्रतिमा की सफलतापूर्वक आराधना करने के उपरान्त उससे अगली-दूसरी प्रतिमा की आराधना की ही जाय। यह तो साधक की शक्ति और दृढ़ता पर ही निर्भर है कि वह आगे की प्रतिमाओं की आराधना करें। यद्याप साधारणतः प्रतिमाओं की साधना एक के बाद दूसरी इस क्रम से की जाती हैं. किन्तु कुछ अत्यन्त दृढ़ मनावली साधक प्रारम्भ की प्रतिमाओं को छोड़कर सीधी ही बारहवीं भिक्षु प्रतिमा की आगध सा करते हैं। जैसा कि मुनि गजसुकुमाल ने किया। गजसुकुमाल मुनि का विस्तृत वर्णन अन्तकृद्दशासूत्र में है। भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ७ में मिलता है। इसी के अनुसार यहाँ क्रमपूर्वक : भिक्षु प्रतिमाओं का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रतिमाधारी श्रमण की प्रवृत्तियाँ प्रतिमाधारी श्रमण अपने शरीर के प्रति बहुत ही निरपेक्ष हो जाता है। जिस धर्म-ग्थानक. उपायअथवा स्थान में ठहरा हो, यदि वहाँ किसी प्रकार से अग्नि, जल, असामाजिक तत्त्वों का उपद्रव हो जाय तो भी उस स्थान को नहीं छोड़ता। वायु प्रकोप से यदि उसकी आँख में रजकण, तिनका आदि पड़ जाय तो उसकी पीड़ा यह लेता है किन्न अपने हाथ से उसे नहीं निकालता। इस प्रकार गमन करते समय पैर में काँटा, काँच का टुकड़ा आदि चुभ जाय तो भी नहीं निकालता। कंकरीला मार्ग आ जाय तो उसे छोड़कर सुखद मार्ग पर जाने की इच्छा भी नहीं करता। ___ यदि सामने वाघ, सिंह आदि हिंसक पशु सामने से आ जाये तो वहीं खड़ा रह जाता है. एक कदम भी पीछे नहीं हटता और यदि गाय आदि आ जाये तो दयालुतावश पीछे हटकर मार्ग दे देता है। ___ इसी प्रकार कीड़ी नगग (चींटियों का विल और समूह) मार्ग में आ जाय और वह उसे उलाँघ न सके तो जीव-हिंसा से बचने के लिए वहीं खड़ा रह जाता है। वह सचित्त भूमि पर न वैठता है, न गमन करता है और न खड़ा होता है। शीत निवारण के लिए वह धूप में खड़े होने की तथा ग्रीष्म ऋतु में छाया में जाने की इच्छा भी नहीं करना; धूप अथवा छाया--जहाँ भी हो. वहीं अवस्थित रहता है। जहाँ भी सूर्यास्त अथवा दिन का चौथा प्रहर समाप्त हो जाय, वह रात्रिभर के लिए अवस्थित हो चाहे वह स्थान नगर का मध्य भाग हो. राजमार्ग हो, ग्राम की सीमा हो, घोर जंगल हो अथवा वृक्ष का मूल हो। वह सिंह आदि हिंसक वन्य पशुओं की गर्जनाओं की तथा शीतकालीन वर्फीली बयारों की भी चिन्ता नहीं करता। अन्तकृदशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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