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________________ संलेखना ग्रहण करते समय साधक सभी जीवों से क्षमायाचना करके स्वयं को वैर-वैमनस्य और विरोध आदि हीन प्रवृत्तियों का त्याग करता हुआ समभावों में रमण करता है, विषम भाव अपने हृदय में नहीं आने देता। मैत्री भाव में रमण करता है। ___ वह न मृत्यु से भयभीत होता है और न मृत्यु की इच्छा ही करता है। जिस तरह उसने जीवन को उच्चतम ढंग से जीया है उसी तरह मृत्यु को भी कलात्मक रूप से अपनाता है। वह मृत्यु को भयोत्पादक नहीं अपितु महोत्सव मानता है। वस्तुतः मृत्यु से वही भयभीत होते हैं जो मृत्यु का स्वरूप नहीं जानते। जिन्होंने इस जीवन में सत्कर्म न किये हों, पापकर्म किये हों-वे इस आशंका से भयभीत होते हैं कि आगामी जन्म हमारे लिए घोर दुःखपूर्ण होगा। ऐसे लोगों को ही मृत्यु अन्धकारपूर्ण और त्रासदायी दिखाई देती है। इसके विपरीत जो लोग धार्मिक जीवन जीते हैं, आशाओं-इच्छाओं-आकांक्षाओं के दास नहीं होते, तृष्णा नागिन जिन्हें नहीं डसती उनके लिए मृत्यु उतनी ही सहज होती है, जैसे-पुराने वस्त्र को उतारकर नया वस्त्र पहन लेना। संलेखना की आराधना में दत्तचित्त साधक न जीने की इच्छा करता है, न मृत्यु की; न उस लोक में प्रशंसा-प्राप्ति की इच्छा होती है, न आगामी जीवन में सुख-प्राप्ति की तथा न किसी भी प्रकार के कामभोगों की आशंसा। वह इन सब से दूर रहकर शांतिपूर्वक समाधिमरण प्राप्त करता है। मरण के प्रकार प्रसंगोपात्त यहाँ मरण के प्रकारों को जानना आवश्यक है। इसके प्रमुख भेद दो हैं-(१) सकाममरण, और (२) अकाममरण; अथवा (१) अनैच्छिकमरण, और (२) स्वैच्छिकमरण; अथवा (१) बालमरण, और (२) पण्डितमरण। पण्डितमग्ण का ही दृसग नाम समाधिमरण है। वालमरण के अनेक प्रकार हैं और यह सामान्यतः सभी असंयमी और अज्ञानी प्राणियों को होता रहता है। भगवती आदि आगमों में वानमग्ण के १२ भंद बताये गये हैं। लेकिन आज के प्रगतिशील भौतिकवादी वैज्ञानिक चमत्कारों से भरे चकाचौंध युग में बालमरण के अनेक प्रकार प्रचलित हो गये हैं। संक्षेप में बालमरण कषायों की तीव्रता के आवेश में, वर्तमान कष्टों से मुक्ति की आशा तथा आगामी जन्म में सुखोपभोगों की लालसा से बलात् प्राणों का त्याग करना है। संलेखना न आत्महत्या है, न स्वेच्छा-मृत्यु वर्तमान युग तर्कवादी और बुद्धिवादी है। साथ ही एक वस्तु, सिद्धान्त और प्रक्रिया से दूसरी वस्तु, सिद्धान्त अथवा प्रक्रिया की तुलना करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। प्राचीन आध्यात्मिक धार्मिक सिद्धान्तों, साधनाओं को भी आधुनिक भौतिकवादी सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने का प्रयास किया जा रहा है। यहाँ तक कि उन उच्चकोटि की साधनाओं पर आक्षेप भी लगाये जा रहे हैं। कुछ अतिबुद्धिवादी संलेखना और समाधिमरण पर आत्महत्या का आक्षेप लगाते हैं। लेकिन संलेखना और आत्महत्या में आकाश-पाताल का अन्तर है। __अन्तकृद्दशा महिमा .३७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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