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________________ जप्याय 中步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步hhhhhhh55555555555岁岁乐乐场步步步步步步步步步中 संलेखना-संथारा : एक पर्यालोचन $$$$555555555555555555555555555万岁万岁万岁万岁万岁万岁万万岁555555555555555 संलेखना-संथारा जैनधर्म के विशिष्ट शब्द हैं। संलेखना का अभिप्राय है-मृत्यु कला। वीरतापूर्वक, निर्भय होकर मृत्यु का स्वागत करना। ___ प्रस्तुत अन्तकृद्दशांगसूत्र में वर्णित सभी साधक (गजसुकुमाल मुनि के अतिरिक्त) अपने अन्तिम समय में संलेखना-संथारा की आराधना करते हुए देह का विसर्जन करके मुक्ति प्राप्त करते हैं। अतः यहाँ संलेखना-संथारा का संक्षिप्त विवेचन आवश्यक है। संलेखना पहले हम संलेखना को लेते हैं। संलेखना का अभिप्राय ___ 'संलेखना' शब्द शाब्दिक दृष्टि से दो शब्दों के सम्मिलन से निष्पन्न हुआ है-सत् + लेखना अथवा सं + लेखना। सन्धि नियम के अनुसार क्रमशः इनका रूप बनता है-सल्लेखना तथा संलेखना। लेकिन 'सत्' शब्द भी यहाँ सम्यक् के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सत् अर्थात् सम्यक् रूप से तथा लेखना' अर्थात् कृश करना, क्षीण करना यानी सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को क्षीण करना संलेखना है। जैन दृष्टि से काय और कषाय को कर्मबन्धन का मूल कारण माना गया है। उपलक्षण से यहाँ काय में मन और वचन भी गर्भित है। कषाय के तो चार भेद हैं ही-क्रोध, मान, माया और लोभ। कर्मग्रन्थों में जो ‘योग और कषाय' से कर्मबन्धन माना गया है, वही अभिप्राय यहाँ 'काय और कषाय' से है। इसका फलित यह है कि संलेखना में जो काय और कषाय को कृश अथवा क्षीण किया जाता है, उससे कर्मबन्धन भी क्षीण होते हैं और क्षीण होते-होते क्षय भी हो जाते हैं। परिणामस्वरूप साधक कर्म-बन्धनों से मुक्त भी हो जाता है। यही कारण है कि प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति, चाहे वह श्रावक हो अथवा श्रमण हो, संलेखना-संथारापूर्वक अपनी इहलीला समाप्त करने की भावना रखता है। संलेखना की भावना संलेखना की भावना होते हुए भी अचानक ही संलेखना ग्रहण नहीं की जाती। इसके लिए साधक अपनी शारीरिक स्थिति पर विचार करता है, गुरु के समक्ष अपनी भावना प्रगट करता है, अनुभवी गुरु उचित समझते हैं तो संलेखना की आज्ञा देते हैं और गुरु की आज्ञा पाकर ही साधक संलेखना ग्रहण करता है। आगमों के वर्णन के अनुसार साधक संलेखना ग्रहण करने से पूर्व अपने शरीर की स्थिति पर इस प्रकार विचार करता है अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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