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________________ अशक्त श्रमण, आचार्य आदि की तन-मन से सेवा करता है और वह भी अग्लान भाव से तब वह सेवा वैयावृत्य तप का रूप लेती है। तपस्वी, ग्लान आदि के रूप में वैयावृत्य तप के दस भेद आगमों में बताये हैं। ४. स्वाध्याय तप ___ मनीषियों ने स्वाध्याय शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ दी हैं। जैसे-सुष्टु-भलीभाँति, आङ् मर्यादा सहित अध्ययन; स्वाध्याय है। (अभयदेव)। श्रेष्ठ अध्ययन स्वाध्याय (आवश्यक सूत्र) स्वयमध्ययनं स्वाध्यायः-अन्य किसी के सहयोग के बिना स्वयं ही अध्ययन करना। स्वस्यात्मनोऽध्ययनम्-अपनी आत्मा का अध्ययन करना। स्वेन स्वस्य अध्ययनम्-अपने द्वारा ही अपना अध्ययन करना। इस प्रकार स्वाध्याय के अनेक लक्षण विद्वानों ने बताये हैं। लेकिन स्वाध्याय तप का सरल अर्थ हैधार्मिक पुस्तकों को पढ़ना, मनन और निदिध्यासन करके आत्मा और तत्त्व के स्वरूप को हृदयंगम करना। गुरु से वाचना लेना, अपनी शंकाओं का निवारण करना, सीखे हुए ज्ञान की बार-बार परिवर्तना करना, उस पर चिन्तन-मनन करना और धर्म का कथन करके अन्य लोगों को धर्माभिमुख बनाना-ये स्वाध्याय तप के पाँच उत्तरभेद हैं। स्वाध्याय तप से बुद्धि निर्मल होती है, ज्ञान स्थायी रहता है, तत्त्व-अतत्त्व का विवेक होता है और मन की चंचलता समाप्त होकर वह एकाग्र होता है। स्वाध्याय तप में लीन श्रमण शुभ और शुद्ध भावों में रमण करता है। उसे आत्मानुभूति और आत्म-साक्षात्कार भी होता है। ५. ध्यान तप यद्यपि आगमों में चार प्रकार के ध्यान बताये हैं-आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल; लेकिन अशुभ होने से आर्त्त-रौद्रध्यान त्याज्य हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही तप की श्रेणी में आते हैं; क्योंकि ये शुभ हैं, शुद्ध हैं और आत्मा की मुक्ति के साक्षात् कारण हैं। शुक्लध्यान तो समाधि की अवस्था है और उसका अगला चरण मुक्ति है। मानव जीवन्मुक्त, अरिहंत, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, लोक-अलोक का ज्ञाता तथा वीतरागी बन जाता है। धर्मध्यान के चार उत्तरभेद हैं(१) आज्ञा विचय-वीतराग भगवान-तीर्थंकर की आज्ञा पालन करना। (२) अपाय विचय-कषाय, प्रमाद आदि दोषों से बचने के उपायों का चिन्तन करना। (३) विपाक विचय-कर्मफल पर मनन करना। (४) संस्थान विचय-लोक-अलोक, चतुर्गतिक संसार छह द्रव्य, नव तत्त्व आदि के स्वरूप का चिन्तन, मनन और साक्षात्कार करना। इसी प्रकार शुक्लध्यान के भी चार उत्तरभेद हैं (१) पृथक्त्व वितर्क सविचार-इस ध्यान में साधक (श्रमण) की ध्यान-धारा द्रव्य-पर्यायों और योगों में भ्रमण करती रहती है। ___ अन्तकृद्दशा महिमा .३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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