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________________ सहोदरे कणीयसे भाया गयसुकुमाले अणगारे जण्णं अहं वंदामि नम॑सामि । तणं अरहा अरिनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - साहिए णं कण्हा ! गयसुकुमालेणं अणगारेणं अप्पणो अट्टे । तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्ठणेमिं एवं वयासी - कहण्णं भंते! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिए अप्पणो अट्ठे ? सूत्र ३२ : तत्पश्चात वह कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी के मध्य भाग से निकलते हुए जहां सहस्राम्रवन में भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहां आये। वहां आकर भगवान को वन्दन नमस्कार किया । इसके पश्चात अपने सहोदर लघु भ्राता नवदीक्षित गजसुकुमाल मुनि को " ( वन्दन नमस्कार करने के लिये) इधर-उधर देखा । जब उन्हें मुनि वहां नहीं दिखाई दिये तो भगवान् अरिष्टनेमि को पुनः वन्दन नमस्कार किया और वन्दन - नमस्कार करके भगवान से पूछाप्रभो ! वे मेरे सहोदर लघुभ्राता नवदीक्षित गजसुकुमाल मुनि कहां हैं ? मैं उनको वन्दन नमस्कार करना चाहता हूँ । तब अर्हन्त अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहाहे कृष्ण ! गजसुकुमाल मुनि ने जिस प्रयोजन के लिये संयम स्वीकार किया था, वह प्रयोजन, वह आत्मार्थ उन्होंने सिद्ध कर लिया है । यह सुनकर चकित होते हुए कृष्ण वासुदेव ने अर्हन्त प्रभु से प्रश्न कियाभगवन ! गजसुकुमाल मुनि ने अपना प्रयोजन ( अपना आत्मार्थ ) कैसे सिद्ध कर लिया है ? Maxim 32 : After that passing through the middle of Dwārakā city Kṛṣṇa Vasudeva reached Sahasrāmravana, where Bhagawana Aristanemi was present. He bowed down and worshipped Bhagawāna. 990 Jain Education International For Private Personal Use Only अन्तकृद्दशा सूत्र : तृतीय वर्ग www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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