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________________ देसभागं अभिसरमाणाई, मुद्धयाई पुणो य कोमल-कमलोवमेहिं हत्थेहिं गिहिऊण उच्छंगे णिवेसियाई देंति; समुल्लावए सुमहुरे पुणो-पुणो मंजुलप्पभणिए । अहं णं अधण्णा अपुण्णा एत्तो एगयरमवि ण पत्ता (एवं) ओहयमण संकप्पा जाय झियायइ। की को पुत्र अभिलाषा उस समय देवकी को इस प्रकार का विचार, चिन्तन और अभिलाषापूर्ण मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि-अहो ! मैंने पूर्णतः समान आकृति वाले यावत् नलकूबर के समान सात पुत्रों को जन्म दिया, पर मैंने एक पुत्र की भी वाल्यक्रीड़ा के आनन्द का अनुभव नहीं किया । फिर यह कृष्ण वासुदेव भी छ: महीनों के पश्चात् मेरे पास चरण-वन्दना के लिए भागता दौड़ता आता है । इस संसार में वास्तव में वे माताएं धन्य हैं, जिनकी अपनी कुक्षि से उत्पन्न हुए, स्तनपान के लोभी बालक, मधुर-आलाप करते हुए, तुतलाती बोली से मन्मन बोलते हुए, स्तनमूल कक्षा भाग में इधर से उधर अभिसरण करते घूमते रहते हैं, एवं फिर उन मुग्ध भोले बालकों को जो माताएँ कमल के समान अपने कोमल हाथों द्वारा पकड़ कर गोद में बिठाती हैं, और अपने बालकों से मंजुल-मधुर शब्दों में बार-बार बातें करती हैं । मैं तो निश्चित रूप से अधन्य, अकृतार्थ (असफल) और पुण्यहीन हूँ क्योंकि मैंने इनमें से किसी एक पुत्र की भी बाल-क्रीड़ा नहीं देखी । इस प्रकार देवकी खिन्न मन से हथेली पर मुख रखे उदास होकर आर्तध्यान करने लगी । Son-desire of Devaki Maxim 16 : Then there arose such thinking, thought and mental current in the mind of Devaki-Oh truly I gave birth to seven sons exactly alike (until) resembling Nalakūbara in beauty but अष्टम अध्ययन . ७५ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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