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________________ पयायइ । तए णं से हरिणेगमेसी देवे सुलसाए अणुकंपणट्टाए विणिहायमावण्णए दारए करयल - संपुडेणं गिण्हइ । गिण्हित्ता तव अंतियं साहरइ । साहरइत्ता तं समयं च णं तुम णवण्हं मासाणं सुकुमाल दारए पसवसि । जे वि य णं देवाणुप्पिए ! तव पुत्ता ते वि य जाव अंतियाओ करयलसंपुडेणं गिues, गिण्हित्ता सुलसाए गाहावइणीए अंतिए साहरइ । तं तव चेव णं देवइ ! ए ए पुत्ता । णो चेव णं सुलसाए गाहावइणीए । सूत्र १४ : तब सुलसा गाथापत्नी की उस भक्ति (अनुराग) बहुमान-सन्मान सत्कार पूर्वक की गई सेवा-शुश्रूषा से देवता प्रसन्न हुआ । हरिणगमेषी देव, सुलसा गाथापत्नी पर अनुकम्पा करने हेतु सुलसा गाथापत्नी को तथा तुम्हें दोनों को समकाल में ऋतुमति (रजस्वला) करता । तब तुम दोनों समकाल में गर्भ धारण करतीं और समकाल में ही बालक को जन्म देतीं । तब हरिणगमेषी देव सुलसा पर अनुकम्पा करने के लिए उसके मृत बालक को सावधानी पूर्वक दोनों हाथों में लेता और लेकर तुम्हारे पास ले आता । इधर उस समय तुम भी नवें मास का काल पूर्ण होने पर सुकुमार बालक को जन्म देती थीं । हे देवानुप्रिये ! जो तुम्हारे पुत्र होते उनको भी हरिणगमेषी देव तुम्हारे पास से अपने दोनों हाथों में ग्रहण करता और उन्हें ग्रहण कर सुलसा गाथापत्नी के पास लाकर रख देता था । अतः वास्तव में हे देवकी ! ये तुम्हारे ही आत्मज पुत्र हैं, सुलसा गाथा पत्नी के नहीं हैं । Maxim 14 : The god was pleased with Sulasă by her such devotion, respect and service. On account of compassion for Sulasă अष्टम अध्ययन Jain Education International For Private Personal Use Only ७१ www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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