SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनन्त ज्ञानमय, अनन्त आनन्दमय आत्म-स्वरूप की उपलब्धि निर्वाण है । ऐसा निर्वाण ही प्रत्येक आत्मा का चरम लक्ष्य है । इसी निर्वाण के लिए आत्मा त्याग, तप, ध्यान आदि का आचरण करता है, साधना करता है । साधना का सफल या कृतार्थ हो जाना ही सिद्धि है । सिद्धि प्राप्त करना ही प्रत्येक आत्मा का उद्देश्य है । निर्वाण या सिद्धि प्राप्त करने के लिए त्याग, तप एवं ध्यान का मार्ग बताया गया है । विहंगम दृष्टि से देखने पर पता चलता है, ब्राह्मण संस्कृति में ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए 'योग' मार्ग का विधान किया गया है, बौद्धदर्शन में 'ध्यान' मार्ग पर बल दिया गया है और श्रमण या जैन संस्कृति में 'तप’ मार्ग का निरूपण है । 'तप' में योग एवं ध्यान दोनों ही समाहित हैं । तप के बारह भेदों में काय-क्लेश तप योगमार्ग की साधना का रूप है तो ध्यान तप ध्यान-मार्ग का स्वरूप बताता है । 'तप' में योग भी है और ध्यान भी है । इसलिए श्रमण संस्कृति तपस्वियों की संस्कृति रही है । तपःसाधना ही श्रमण संस्कृति का सार है । 'तप' श्रमण संस्कृति की पहचान है । जैनधर्म की आत्मा है-तप । अन्तकृद्दशा सूत्र परिचय-तपःसाधना के विशिष्ट रूप और स्वरूप पर प्रकाश डालने वाले जैन आगमों में अन्तकृद्दशा सूत्र का अपना विशेष महत्त्व है । इसका नाम ही ‘तप' की फलश्रुति का सूचक है। 'तप' शरीर को सुखाने के लिए नहीं किया जाता । तप का उद्देश्य है-आत्मा के साथ लगे हुए कर्म आवरणों को तपाकर जलाकर भस्म कर देना । जैसे-सोने के साथ लिपटी हुई मिट्टी आदि अन्य रसायन, अग्नि में तपाने से भस्म हो जाते हैं और सोना ‘कुन्दन' या शुद्ध स्वर्ण बन जाता है, इसी प्रकार तप से संपूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाने पर आत्म-स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है । इस प्रकार तपःसाधना से समस्त कर्मों का अन्त-नाश किया जाता है । कर्मों का नाश हो जाने से जन्म-मरण की भव-परम्परा का भी नाश हो जाता है-“कम्म च जाई मरणस्स मूलं।"-जन्म और मरण का मूल कर्म है । कर्म-नाश होने पर जन्म और मृत्यु के बंधन स्वयं टूट जाते हैं । भव-परम्परा का अन्त हो जाता है । 'अन्तकृद्दशा सूत्र' का शब्दार्थ भी यही है कि भव-परम्परा का अन्त करने वाली आत्माओं की दशा, स्थिति, अवस्था तथा उनकी साधना का वर्णन करने वाला आगम है-अन्तकृद्दशा सूत्र । अन्तकृद्दशा सूत्र में भव-परम्परा का उच्छेद करके निर्वाण प्राप्त करने वाले ९० साधकों की कठोर साधना, तपश्चर्या और ध्यान-योग की साधना का रोमांचक वर्णन है । ___अन्तकृद्दशा सूत्र आगमों में आठवाँ अंग है । इस सूत्र के आठ वर्ग हैं और इसमें वर्णित सभी पात्रआठ कर्मों का क्षय करके निर्वाणगामी हुए हैं इसलिए जैन-शासन में पर्युषण के आठ दिनों में इस शास्त्र के वाचन की प्राचीन परम्परा प्रचलित है । ____ भाषा-इस आगम की भाषा अर्ध-मागधी है । शास्त्रों में बताया है-तीर्थंकर देव, गणधरों तथा देवताओं की प्रिय भाषा अर्ध-मागधी है । इसलिए यह सर्वप्रिय भाषा है । सभी जैन सूत्रों की भाषा अर्ध-मागधी है। + १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy