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________________ प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन हैं। वर्तमान में सातवाँ महापरिण्णा अध्ययन विच्छेद माना जाता है। अतः आठ अध्ययन ही उपलब्ध हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीर निर्वाण संवत् के ६२३ वर्ष पश्चात् आचारांगधर आचार्यों का विच्छेद हो जाने से आचारांग का सम्पूर्ण विच्छेद हो गया। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आचारांग का सम्पूर्ण विच्छेद नहीं हुआ, किन्तु इसके कुछ अंशों का विच्छेद अवश्य ही हो गया। इसके अनेक कारण हैं - श्रुतधर आचार्यों का अभाव, स्मृति की दुर्बलता, दुष्कालों का प्रभाव तथा लिपि करने वालों की असावधानी आदि । इतिहासकारों का मत है कि आर्य वज्रस्वामी के समय ( पहली शताब्दी) तक महापरिण्णा अध्ययन विद्यमान था । वज्रस्वामी ने उससे गगनगामिनी विद्या उद्धृत की थी । उसमें अनेक प्रकार के मंत्र व विद्याओं का भी वर्णन था। धीरे-धीरे आचार्यों ने उसका पढ़ना-पढ़ाना निषिद्ध कर दिया । निर्युक्तिकार तथा चूर्णिकार के समय में वह विद्यमान था ऐसा सम्भव है। किन्तु टीकाकार आचार्य शीलांक सूरि (८वीं शताब्दी) के समय में यह विच्छिन्न था। इससे अनुमान होता है कि इस बीच के काल में ही सातवाँ अध्ययन विच्छिन्न हुआ है। आचारांग की विषय-वस्तु आचारांग मुख्य रूप में आचारशास्त्र है । परन्तु यह दशवैकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र की शैली का आचारशास्त्र नहीं है। उनमें मुख्यतः मुनि के आचार- गोचर का प्रतिपादन है जबकि आचारांग में इस आचार की आधार भूमि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप पर ही विशेष वर्णन है । आचारधर्म के साथ इसमें अध्यात्म और दर्शन की भी महत्त्वपूर्ण सामग्री भरी है। आचारांग में श्रद्धा पर बहुत बल दिया है, अनेक स्थानों पर 'सड्ढी आणाए मेहावी' शब्दों का प्रयोग हुआ है, 'आणाए मामगं धम्मं' - आज्ञा में ही मेरा धर्म है, जैसे वाक्य भी श्रद्धा की उत्कृष्टता का परिचय देते हैं। यह श्रद्धा प्रधान आगम होते हुए भी स्वतंत्र विवेक - परिण्णा, मति, मेधा आदि पर बार-बार बल देते हुए कहा है- 'भगवया परिण्णा पवेइया' - भगवान ने प्रज्ञा, बुद्धि, विवेक का कथन किया है। अनेक बार 'मइमं पास' शब्दों का पुनरावर्तन यह सूचित करता है कि केवलज्ञानी ने कहा है, इसीलिए ही मत मानो, किन्तु अपनी बुद्धि से, विवेक से विचार करके देखो | 'मइम पास' शब्द का अर्थ करते हुए आचार्य शीलांक सूरि ने लिखा है' न केवलं अहमेव कथयामि त्वमेव पश्य' - यह बात केवल मैं ही नहीं कह रहा हूँ, किन्तु तुम स्वयं भी देखो। इस प्रकार श्रद्धा और स्वतंत्र चिन्तन, श्रद्धा और प्रज्ञा दोनों का ही सुन्दर संगम इस आगम में देखने को मिलता है।, आचारांग की रचना-शैली प्रथम आचारांग गद्य-बहुल है। पद्य-गाथाएँ भी हैं, परन्तु बहुत कम हैं। डॉ. शुब्रिंग ने लिखा है - " लगता है पहले आचारांग पद्य - बहुल ही रहा होगा, क्योंकि अनेक गद्यांश खण्डित पद्य जैसे मिलते हैं। यही कारण है कि छोटे-छोटे सूत्र दीखने में गद्य जैसे लगते हैं, किन्तु उच्चारण में पद्य Jain Education International ( ८ ) For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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