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________________ २४६. आसीणेऽणेलिसं मरणं इंदियाणि समीरए। कोलावासं समासज्ज वितहं पाउरेसए॥ २४६. इस असाधारण मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों का सम्यक् प्रकार से प्रयोग करे। (सहारे के लिए किसी काष्ठ स्तम्भ या पट्टे की आवश्यकता होने पर) घुन, दीमक आदि रहति तथा निश्छिद्र काष्ठ स्तम्भ या पट्टे का अन्वेषण करे। 246. An ascetic absorbed in this unique fast unto death should make proper and disciplined use of his sense-organs. (When in need to lean on) he should seek a wooden plank or pillar that is free of wood worms, white ants and holes. २४७. जओ वज्जं समुप्पज्जे ण तत्थ अवलंबए। ततो उक्कसे अप्पाणं सव्वे फासेऽहियासए॥ २४७. जिस क्रिया से कर्म या वयं-पाप उत्पन्न हों, ऐसी वस्तु का सहारा न ले। उस स्थान से अपने आप को हटा ले और सभी दुःख-स्पर्शों को सहन करे। 247. He should not lean against anything that engenders karmic bondage. He should leave that place and endure all hardships. _ विवेचन-भक्त प्रत्याख्यान से इंगिनीमरण अनशन विशिष्टतर है। इसमें अपने सिवाय किसी दूसरे की सेवा लेने का भी निषेध है। ___ इंगिनीमरण साधक अपना अंग-संचार, उठना, बैठना, करवट बदलना, शौच, लघु शंका आदि समस्त शारीरिक क्रियाएँ स्वयं करता है। तीन करण तीन योग का अर्थ है, दूसरों के द्वारा करने, कराने, व किये जाते हुए का अनुमोदन करने का भी वह मन, वचन, काया से त्याग करता है। वह अपनी निर्धारित भूमि में ही गमनागमन आदि करता है, उससे बाहर नहीं। स्थण्डिल से अभिप्राय है, जीव-जन्तु, हरियाली आदि से रहित वह स्थान, जहाँ वह इच्छानुसार बैठे, लेटे या सो सके। जहाँ तक हो सके, वह अंगचेष्टा कम से कम करे। हो सके तो वह पादपोपगमन की तरह अचेतनवत् सर्वथा निश्चेष्ट-निःस्पन्द होकर रहे। यदि बैठा-बैठा या लेटा-लेटा थक जाये तो जीव-जन्तुरहित काष्ठ की पट्टी आदि किसी वस्तु का सहारा ले सकता है। किन्तु किसी भी स्थिति में आर्तध्यान या राग-द्वेषादि का विकल्प जरा भी मन में न आने दे। __णिसिएज्ज की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने कहा है-पर्यंकासन-उकडू आसन आदि में बैठा हुआ मुनि जब थक जाये तो जिस प्रकार समाधि उपजे-पार्श्व शयन, उत्तानासन या अन्य आसन से बैठकर समाधिस्थ रहे। विमोक्ष : अष्टम अध्ययन ( ४४७ ) Vimoksha: Eight Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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