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________________ तं सच्चं सच्चवादी ओए तिण्णे छिण्णकहंकहे आतीतट्ठे अणातीते चिच्चाण भेउरं कायं संविधुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सिं विस्संभणयाए भेरवमणुचिण्णे । तत्थावि तस्स कालपरियाए । से वि तत्थ वियंतिकारए । इच्चेयं विमोहातणं हियं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं । त्ति बेमि । ॥ छट्टो उद्देसओ समत्तो ॥ २२५. जिस भिक्षु के मन में इस प्रकार का संकल्प उठता है कि मैं इस समय आवश्यक क्रियाएँ करने के लिए इस शरीर को वहन करने में क्रमशः असमर्थ हो रहा हूँ, तब वह भिक्षु क्रमशः तप के द्वारा आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे और आहार का संक्षेप करता हुआ वह कषायों को स्वल्प करे। कषायों को स्वल्प करके अन्तःकरण को समाधियुक्त करे, तथा शरीर और कषाय दोनों ओर से फलक की तरह कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उद्यत होकर शरीर को स्थिर - संतापरहित करे । उस भिक्षु के शरीर में चलने की शक्ति हो, तो क्रमशः ग्राम में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मडंब में, पत्तन में, द्रोणमुख में, आकर में, आश्रम में, सन्निवेश में, निगम में या राजधानी में (किसी भी बस्ती में) जाकर सूखे तृण-पलाल घास की याचना करे । घास की याचना करके प्राप्त होने पर उसे लेकर ग्राम आदि के बाहर एकान्त में जाये । वहाँ एकान्त स्थान में जाकर जहाँ कीड़े आदि के अण्डे, जीव-जन्तु, बीज, हरियाली, ओस, उदक, चींटियों के बिल (कीड़ीनगरा), फफूँदी, काई, पानी का दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे जीवरहित स्थान को अच्छी तरह देखकर उसका अच्छी प्रकार प्रमार्जन करके, घास का संथारा (संस्तारक - बिछौना) करे। घास का बिछौना बिछाकर उस पर स्थित हो इत्वरिक अनशन ग्रहण कर ले। वह इत्वरिक अनशन सत्य है । वह ग्रहीत ( प्रतिज्ञा में पूर्णतः स्थित रहने वाला ) सत्यवादी राग-द्वेषरहित, संसार सागर को पार करने वाला, 'इंगितमरण की प्रतिज्ञा निभेगी या नहीं ?' इस प्रकार की शंकाओं से मुक्त है, जीवादि पदार्थों का सांगोपांग ज्ञाता, संसार पारगामी अथवा परिस्थितियों से चिन्तित नहीं होने वाला है। वह इस शरीर को विनाशधर्मी मानकर, विविध प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके, शरीर और आत्मा की पृथक्ता की भावना रखता हुआ इस घोर (भैरव) अनशन का शास्त्र - विधि के अनुसार अनुपालन करे । तब ऐसा इंगिनीमरण स्वीकार करने पर भी उसकी वह काल-मृत्यु ( सहज मृत्यु ) होती है | उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है। आचारांग सूत्र ( ४२० ) Jain Education International For Private Personal Use Only Illustrated Acharanga Sutra www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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