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________________ विवेचन-इस सूत्र में बताया है-भगवान महावीर ने अनेकान्त रूप सम्यग्वाद का प्रतिपादन किया है। जो अन्यदर्शनी साधक सरल हों, जिज्ञासु हों, उन्हें शान्तिपूर्वक समाधान दें, जिससे असत्य एवं मिथ्यात्व से मुक्त हो। यदि असमनुज्ञ साधु जिज्ञासु व सरल न हो, वक्र हो, वितण्डावादी हो और ईर्ष्यावश लोगों में जैन साधुओं को बदनाम करना चाहता हो, वाद-विवाद और झगड़ा करने के लिए उद्यत हो तो मौन रहे–'अदुवा गुत्ती वइगोयरस्स' अर्थात्-ऐसी स्थिति में मुनि वाणी-विषयक गुप्ति रखे। उस युग में कुछ लोग एकान्ततः ऐसा मानते और कहते थे-गाँव, नगर आदि जनसमूह में रहकर ही साधु-धर्म की साधना हो सकती है। इसके विपरीत कुछ साधक यह कहते थे कि अरण्यवास में ही साधु-धर्म की सम्यक् साधना की जा सकती है, बस्ती में रहने से मोह पैदा होता है। इन दोनों एकान्तवादों का प्रतिवाद करते हुए भगवान ने समाधान दिया है-'णेव गामे, णेव रण्णे'-धर्म न तो ग्राम में रहने से होता है, न अरण्य में आरण्यक बनकर रहने से। धर्म का आधार आत्मा है, आत्मा के गुण-सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र में धर्म है। वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही धर्म है। पूज्यपाद देवनन्दी ने इसी बात का इस प्रकार समर्थन किया है "ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा, निवासोऽनात्मदर्शिनाम्। दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मैव निश्चलः॥" -समाधि शतक ७३ --अनात्मदर्शी साधक गाँव या अरण्य में रहता है, किन्तु आत्मदर्शी साधक का वास्तविक निवास निश्छल विशुद्ध आत्मा में रहता है। ‘जामा तिण्णि उदाहिआ'-वृत्तिकार ने याम के तीन अर्थ किये हैं(१) याम–महाव्रत विशेष, (२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, ये तीन याम। (३) धर्म साधना करने योग्य तीन अवस्थाएँ। पहली अवस्था आठ वर्ष से तीस वर्ष तक; पहला याम। ३१ से ६० वर्ष तक दूसरा तथा उससे आगे जीवन पर्यन्त तीसरा याम है। ये तीन अवस्थाएँ 'त्रियाम' हैं। (स्थानांग सूत्र ३) यों तो शतवर्षीय जीवन की दस अवस्थाएँ मानी गई हैं किन्तु यहाँ पर दीक्षा के योग्य अवस्थाएँ बताई जा रही हैं। जैन परम्परा में आठ वर्ष तीन मास से कम आयु वाले को दीक्षा नहीं दी जाती है। परिव्राजक परम्परा में बीस वर्ष से कम अवस्था वाले को प्रव्रजित नहीं किया जाता था। वैदिक लोग अन्तिम अवस्था में संन्यास ग्रहण करते थे। बुद्ध ने तीस वर्ष से कम उम्र वालों को उपसम्पदा (दीक्षा) देने का निषेध किया है। अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह ये तीन महाव्रत तीन याम कहे जाते हैं-यहाँ अचौर्य महाव्रत को सत्य में तथा ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत में समाविष्ट कर लिया है। इन्हें पातंजल योगदर्शन में 'यम' कहा है। भगवान पार्श्वनाथ के शासन में चार महाव्रतों को 'चातुर्याम' कहा जाता था। आचारांग सूत्र ( ३७८ ) Illustrated Acharanga Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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