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________________ . अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा-अत्थि लोए, णत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अणाइए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए, सुकडे त्ति वा दुकडे त्ति वा, कल्लाणे ति वा पावए त्ति वा, साधू त्ति वा असाधू त्ति वा, सिद्धी त्ति वा असिद्धी त्ति वा, निरए त्ति वा अनिरए त्ति वा। जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा। एत्थ वि जाणह अकस्मात्। एवं तेसिं णो सुअक्खाए णो सुपण्णत्ते धम्मे भवति। २०१. कुछ भिक्षुओं को आचार-गोचर सम्यक् प्रकार से ज्ञात नहीं होता। वे (पचन-पाचन आदि सावध क्रियाओं द्वारा) आरम्भ के इच्छुक हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं जीव-हिंसा करते हैं, दूसरों से जीवहिंसा कराते हैं और जीव-हिंसा करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त (बिना दिये हुए पर-द्रव्य) का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध प्रकार के परस्पर विरोधी वचनों का प्रयोग करते हैं। जैसे कि-(कई अस्तित्ववादी कहते हैं-) लोक है, (दूसरे कहते हैं-) लोक नहीं है। (एक कहते हैं-) लोक ध्रुव है, (दूसरे कहते हैं-) लोक अध्रुव है। (कुछ कहते हैं-) लोक सादि है, (कुछ कहते हैं-) लोक अनादि है। (कई सृष्टिवादी कहते हैं-) लोक सान्त है, (दूसरे असृष्टिवादी कहते हैं-) लोक अनन्त है। (कुछ कहते हैं-) सुकृत है, (कुछ कहते हैं-) दुष्कृत है। (कुछ कहते हैं-) कल्याण है, (कुछ कहते हैं-) पाप है। (कुछ कहते हैं-) साधु (अच्छा) है, (कुछ कहते हैं-) असाधु (बुरा) है। (कई वादी कहते हैं-) सिद्धि (मुक्ति निर्वाण) है, (कई कहते हैं-) सिद्धि (मुक्ति) नहीं है। (कई दार्शनिक कहते हैं-) नरक है, (कई कहते हैं-) नरक नहीं है। ___ जो इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वादों द्वारा वे अपने-अपने धर्म का प्ररूपण करते हैं, इनके सभी कथन हेतु-(युक्ति-तर्क) हीन है, परस्पर विरुद्ध है, ऐसा जानो। इस प्रकार उन एकान्तवादियों का धर्म न तो युक्ति-संगत है, और न ही भली प्रकार सम्यक् प्ररूपित है। THE ATTITUDE AND CONDUCT OF NON-CONFORMISTS 201. Some ascetics do not properly know about codes of conduct and rules of alms collection (gochar). They are drawn towards sinful activities (due to indulgence in eating, digesting and other such activities), and start supporting the words of those who indulge in sinful activities. They indulge in violence against beings, cause others to do so, and approve others doing so. विमोक्ष : अष्टम अध्ययन ( ३७५ ) Vimoksha : Eight Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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