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________________ them (unbiased and true ascetics) for their deeds (of their preascetic life). Or defame them using harsh words and false accusations. A wise ascetic should properly understand his religion (ascetic path) ignoring all these acts as designs of uncouth people. - विवेचन-(सूत्र १९१-१९२) 'पण्णाणमुवलब्भ - '-इस पंक्ति के द्वारा शास्त्रकार ने बताया * है-ज्ञानी गुरुजनों द्वारा अहर्निश वात्सल्यपूर्वक प्रशिक्षित किये जाने पर भी कुछ शिष्यों को ज्ञान का गर्व हो जाता है। बहुश्रुत हो जाने के मद में वे गुरुजनों द्वारा किए गये समस्त उपकारों को भूल जाते हैं, उनके प्रति विनय, नम्रता, आदर-सत्कार, बहुमान, भक्तिभाव आदि के बदले उपशमभाव को छोड़कर उपकारी गुरुजनों के प्रति कठोरता धारण कर लेते हैं। उन्हें अज्ञानी, कुदृष्टि-सम्पन्न एवं चारित्र-भ्रष्ट बताने लगते हैं। ब्रह्मचर्य से यहाँ संयम तथा 'गुरुकुलवास' दोनों ही अर्थ लिए जा सकते हैं। 'आणं तं णो त्ति मण्णमाणा'-कुछ साधक गुरुजनों के सान्निध्य में वर्षों रहकर भी उनके द्वारा अनुशासित किये जाने पर भी उनकी आज्ञा को ठुकरा देते हैं। आचार्य उन्हें उत्सर्ग सूत्रानुसार चलने के लिए प्रेरित करते हैं तो वे कह देते हैं-"यह तीर्थंकरों की आज्ञा नहीं है।" वस्तुतः ऐसे साधक शारीरिक सुख की तलाश में अपवाद मार्ग का आश्रय लेते हैं। ___'सत्थारमेव फरुसं वदंति'-वृत्तिकार ने इस पंक्ति के दो अर्थ किये हैं (१) आचार्यादि द्वारा शास्त्राभिप्रायपूर्वक प्रेरित किये जाने पर भी अहंकारपूर्वक उस शास्ता को ही कठोर वचन बोलने लगते हैं। म (२) अथवा शास्ता का अर्थ शासनाधीश तीर्थंकर आदि भी होता है। अतः यह अर्थ भी सम्भव * है कि शास्ता अर्थात् तीर्थंकर आदि के लिए भी कठोर व अवज्ञामूलक वचन कह देते हैं। ___ "णियट्टमाणा.'-कुछ साधक सातागौरववश सुख-सुविधावादी बनकर मुनिधर्म के संयमी वेश से * भी निवृत्त हो जाते हैं, फिर भी वे विनय को नहीं छोड़ते, न ही किसी साधु पर दोषारोपण करते हैं, * न कठोर बोलते हैं, अर्थात् वे अहंकारग्रस्त होकर अपने आचार में दम्भ, दिखावा नहीं करते, न ही * झूठा बहाना बनाकर अपवाद का सेवन करते हैं, किन्तु सरल एवं स्पष्ट हृदय से कहते हैं "मुनिधर्म का मौलिक आचार तो ऐसा है, किन्तु हम उतना पालन करने में असमर्थ हैं।" ___णाणभट्ठा सणलूसिणो'-किन्तु ज्ञान से भ्रष्ट और सम्यग्दर्शन के विध्वंसक साधक बहुत खतरनाक होते हैं। वे स्वयं तो चारित्र से भ्रष्ट होते ही हैं, अन्य साधकों को भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से भ्रष्ट करके सन्मार्ग से विचलित भी कर देते हैं। आचारांग सूत्र Illustrated Acharanga Sutra (३४८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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