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________________ विवेचन - उक्त दो सूत्रों में प्रत्यक्ष नहीं दिखाई पड़ने वाले आत्मतत्त्व को जानने के तीन साधन बताये हैं ( १ ) पूर्वजन्म की स्मृति होने पर - जाति-स्मरण ज्ञान तथा अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान द्वारा, स्व-मति अथवा स्व-स्मृति से । जाति - स्मरण ज्ञान होने 'कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं १. उवसंतमोहणिज्जं - मोहकर्म का उपशम होने पर। जैसे- नमि राजर्षि को हुआ । (उत्तरा . ९/१ ) २. अझवसायसुद्धी - अध्यवसाय, भावना, लेश्या आदि शुद्ध निर्मल होने पर। जैसे - मृगापुत्र को जातिस्मरण हुआ। (उत्तरा. १९/५-७) कुछ मनुष्यों को बाह्य निमित्त मिलने पर जातिस्मरण ज्ञान होता है, कुछ को बिना निमित्त के ही तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के कारण हो जाता है। जातिस्मरण ज्ञान होने पर अतीत के संज्ञी भवों (समनस्क जन्म) का ही स्मरण होता है। जो अधिक से अधिक नौ भव हो सकते हैं। असंज्ञी भवों का ज्ञान नहीं होता। (२) तीर्थंकर, केवली आदि प्रत्यक्षज्ञानी का प्रवचन सुनकर या उनके साथ चर्चा करने पर । जैसे - मेघकुमार को पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ । ( ज्ञातासूत्र, अ. १ ) (३) तीर्थंकरों के वचनानुसार उपदेश करने वाले विशिष्ट ज्ञानी । जैसे- अवधिज्ञानी, मनः पर्यव ज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर आदि का उपदेश सुनकर। उक्त कारणों में से किसी कारण से भी पूर्वजन्म का बोध हो सकता है। जिस कारण उसका ज्ञान निश्चयात्मक हो जाता है कि इन पूर्व आदि दिशाओं में जो गमनागमन करता है, वह आत्मा 'मैं' ही हूँ। इस प्रकार का ज्ञान होने पर धर्म के प्रति सहज श्रद्धा, संवेग और वैराग्य भावना में वृद्धि होती है । (देखें चित्र १ ) मैं कौन था " के अहं आसी यह पद आत्म-सम्बन्धी जिज्ञासा की जागृति की सूचना देता है और 'सोऽहं'-"वह मैं हूँ" यह पद उस जिज्ञासा का समाधान करता है । आत्मा में विश्वास होने पर ही मनुष्य आत्मवादी होता है। आत्मा को मानने वाला लोक (संसार) स्थिति को भी स्वीकार करता है, क्योंकि आत्मा का भवान्तर-संचरण (पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म) लोक में ही होता है। लोक का अर्थ है - पौद्गलिक जगत् । लोक में आत्मा का संचरण होने का कारण है कर्म । कर्म के ही कारण आत्मा पुनर्जन्म धारण करता है और दिशाओं, अनुदिशाओं आदि में संचरण करता है । इसलिए लोक को मानने वाला कर्म को भी मानता है। कर्मबन्ध का कारण है--राग-द्वेषयुक्त क्रिया । शुभाशुभ योगों की प्रवृत्ति | इस प्रकार जाति - स्मृति से आत्मा को सम्यक् ज्ञान हो जाने पर लोक का, कर्म का, क्रिया का भी ज्ञान हो जाता है। अतः वह आत्मवादी, लोकवादी कर्मवादी और क्रियावादी कहा जाता है। आचारांग सूत्र ( १० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only Illustrated Acharanga Sutra www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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