SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ The ascetic who renounces the world and then again takes refuge in it becomes likewise (like a householder), Knowing this rise and fall of attitudes the king of ascetics (Bhagavan) has said-That pundit (ascetic) should have affinity for the order (tenets). He should be away from fondness (attachment). During the first and the last quarters of the night he should be careful in studies and meditation). He should be ever steadfast in following the codes of conduct. Hearing about the fruits of good conduct he should abandon carnal desires and greed. विवेचन-सभी जीवों में परिणामों की भिन्नता, तरतमता रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर यहाँ साधना करने वालों के तीन विकल्प बताये हैं (१) कोई साधक सिंहवृत्ति से वैराग्यभाव के साथ गृह-त्याग करता है और उसी * वैराग्यभावपूर्वक जीवन पर्यन्त स्थिर रहता है, वह 'पूर्वोत्थायी पश्चात् अनिपाती है।' इस भंग के उदाहरण के रूप में गणधरों तथा धन्ना एवं शालिभद्र आदि मुनियों को लिया जा सकता है। ___ (२) कोई सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है, किन्तु बाद में शृगालवृत्ति वाला हो जाता है। यह * 'पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती' नामक द्वितीय भंग है। इस भंग के उदाहरण रूप में नन्दिषेण, कुण्डरीक आदि को प्रस्तुत किया जा सकता है, जो पहले तो बहुत ही उत्साह एवं वैराग्य के साथ दीक्षा के लिए उत्थित हुए, लेकिन मोहकर्म के उदय से बाद में संयमी जीवन में शिथिल और पतित हो गये थे। वृत्तिकार ने इसके दो भंग और बताये हैं (३) जो पूर्व में प्रव्रजित तो न हो, और बाद में श्रद्धा से भी गिर जाय। इस भंग के दृष्टान्त रूप में किसी श्रमणोपासक गृहस्थ को ले सकते हैं, जो मुनिधर्म के लिए तो तैयार नहीं हुआ, किन्तु जीवन के संकटापन्न क्षणों में सम्यग्दर्शन से भी गिर गया। (४) चौथा भंग है-जो न तो पूर्व उत्थित होता है और न ही पश्चान्निपाती। इसके उदाहरण के रूप में बालतापसों को ले सकते हैं, जो न तो मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए तैयार हुए और जब उठे ही नहीं तो गिरने का प्रश्न ही नहीं। ___मुनिधर्म में स्थिरता धारण करने के लिए निम्न सूत्रों का संकेत किया गया है (१) साधक आज्ञाकांक्षी हो। तीर्थंकरों का उपदेश और तीर्थंकर प्रतिपादित आगम ज्ञान के प्रति श्रद्धाशील हो। से आचारांग सूत्र ( २६२ ) Nlustrated Acharanga Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy