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________________ प्रमाद एवं परिग्रह - जन्य दोष ७७. भूएहिं जाण पडिलेह सायं । समिए एयाणुपस्सी। तं जहा - अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुंटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं । सह पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदे | ७८. से अबुज्झमाणे हओवहए जाई - मरणं अणुपरियट्टमाणे । जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं । आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरणेण इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता । एत्थ तवो वा दमो वा णियमो वा दिस्सति । पुणं बाले जीविकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेति । ७७. (हे आत्मन् !) तू जीवों के इष्ट-अनिष्ट कर्म विपाक का विचार कर । प्रत्येक जीव को सुखप्रिय है। जो सम्यग्दृष्टि है वह इस ( कर्म - विपाक ) को देखता है। जैसे - अन्धापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, लूला-लँगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चितकबरापन ( कुष्ट आदि चर्म रोग) आदि की प्राप्ति अपने ही प्रमाद ( जनित कर्मबन्ध) के कारण होती है। वह अपने प्रमाद (जनित कर्मबन्ध) के कारण ही विविध योनियों में जाता है और विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है। ७८. वह कर्म के विपाक को नहीं समझता हुआ ( शारीरिक दुःखों से ) हत तथा ( मानसिक पीड़ाओं से उपहत (पुनः पुनः पीड़ित ) होता हुआ बार-बार जन्म-मरण का परिभ्रमण करता है। जिनको यह असंयत जीवन ही प्रिय लगता है वे मनुष्य, क्षेत्र (खुली भूमि) तथा वास्तु (भवन-मकान) आदि में ममत्व रखते हैं। वे रंग-बिरंगे वस्त्र, मणि, कुण्डल, हिरण्य-स्वर्ण और स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें ही आसक्त रहते हैं । ऐसे (परिग्रही) पुरुष न तप कर सकते हैं, न दम ( इन्द्रिय - निग्रह) और न नियम कर सकते हैं। परिग्रह में आसक्त अज्ञानी, ऐश्वर्यपूर्ण निर्विघ्न, जीवन जीने की अभिलाषा करता है। ( बार - बार सुख प्राप्ति की आशा रखता है। किन्तु सुखों की प्राप्ति न होने पर वह ) मूढ़ व्यथा से पीड़ित हुआ विपर्यास (सुख के बदले दुःख ) को ही प्राप्त होता है । लोक-विजय : द्वितीय अध्ययन ( ९९ ) Lok Vijaya: Second Chapter Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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