SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चूर्णिकार के सामने आचारांग सूत्र-पाठ की एक से अधिक परम्पराएँ रही थीं। जिनमें कुछ पाठान्तर आ गये हैं। चूर्णिकार ने शब्दशास्त्री की सूक्ष्म दृष्टि से उन पाठान्तरों पर भी विचार किया है और उनके साथ अर्थ वाचना की लुप्त होती परम्परा का उद्घाटन करने का प्रयास किया है। चूर्णिकार ने एक-एक शब्द के अनेक पाठान्तर देकर उनके विविध अर्थों पर प्रकाश डाला है। जैसे एक पद है-तम्हाऽतिविज्जे (सूत्र ११३)। यदि इसका तम्हा अतिविज्जे-पाठ मान लिया जाय तो अर्थ होता है, अतिविद्य-विशिष्ट विद्वान् और यदि 'तिविज्ज' पाठ मान लिया जाय तो त्रिविद्य-तीन विद्याओं का ज्ञाता। चूर्णिकार ने इस प्रकार के पाठों पर पाठान्तर देकर उनके अनेक अर्थों पर विचार किया है। इनसे प्राचीन अर्थ परम्परा की झलक मिलती है। टीका-आचारांग सूत्र पर टीका (वृत्ति) लिखने वाले आचार्य शीलांक सूरि का समय आठवीं शती माना जाता है। शीलांकाचार्य ने श्री सिद्धसेनाचार्य कृत गंधहस्ति भाष्य नामक टीका के आधार पर इसका अर्थ विस्तार किया था, परन्तु आज वह टीका उपलब्ध नहीं है। टीका के अलावा दीपिका, अवचूरि, बालावबोध भी उपलब्ध होते हैं। आचारांग सूत्र पर सबसे प्रसिद्ध और विस्तृत हिन्दी टीका आचार्यसम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा लिखी गई है। आचार्यसम्राट् ज्ञान के महासमुद्र थे। उन्हें शास्त्रों के पाठ सन्दर्भ सहित कण्ठस्थ थे और उनका अर्थ भी वे अपनी विशद प्रज्ञा से इतना सटीक, तर्क पूर्ण, पूर्वाऽपर का सामंजस्य बैठाते हुए करते हैं कि आगम ज्ञान से अनभिज्ञ पाठक-वाचक भी उनकी व्याख्या पढ़कर शास्त्र का रहस्य समझ लेता है और शंकाओं का समाधान भी पा लेता है। आचार्यसम्राट् ने अनेक शास्त्रों पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी हैं। हमने मूल आधार आचार्यश्री कृत व्याख्या का ही रखा है। इसके अलावा श्रमणसंघ के स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी के प्रधान संपादकत्व में श्रीचन्द सुराना 'सरस' द्वारा संपादित आचारांग सूत्र भी हमारे लिए बहुत उपयोगी बना है। 'तेरापंथ' के विद्वदरत्न आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने 'आचारांग भाष्य' नाम से आचारांग सूत्र पर संस्कृत-हिन्दी में विस्तृत टीका लिखी है उसमें भी अनुसंधानपूर्ण अनेक नये तथ्य व नया चिन्तन उपलब्ध है। इन सभी प्राप्त आगम व्याख्याओं के अनुशीलन के आधार पर यह व्याख्या लिखी गयी है। जिन विद्वानों के विचारों से, उनके चिन्तन से जो उपयोगी व ग्रहणीय लगा है, वह हंस-बुद्धि से उनका नामोल्लेख करते हुए मैंने यथास्थान साभार ग्रहण किया है। यदि प्रमादवश कहीं किसी का नामोल्लेख रह गया है तो उसके लिए मैं पुनः उनका आभार व्यक्त करता हूँ। अनुवाद की शैली-आचारांग स्वयं में विशाल आगम है। फिर सूत्र रूप में होने से इसकी व्याख्या भी विस्तृत होनी चाहिए और इस कारण इसका विस्तार बहुत हो जाता है। मैंने विवेचन में मध्यम मार्ग अपनाया है। मैंने मूल आगम पाठ का भावानुसारी सरल अर्थ किया है। अनुवाद में ही पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने के लिए कोष्ठक में कुछ वाक्य दिये हैं तथा कठिन अप्रचलित शब्दों का अर्थ भी ( १० ) " * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy