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________________ 'एज' का अर्थ है - वायु, पवन। वायुकायिक जीवों की हिंसा निवृत्ति के लिए 'दुगुञ्छा'जुगुप्सा शब्द का प्रयोग हुआ है । आगमों में प्रायः 'दुगुञ्छा' शब्द गर्हा, ग्लानि, लोक-निन्दा, प्रवचन- हीलना एवं साध्वाचार की निन्दा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु यहाँ पर यह 'निवृत्ति' अर्थ का बोध कराता है। इस सूत्र में हिंसा - निवृत्ति के तीन विशेष हेतुओं पर बल दिया गया है (१) आतंक - दर्शन - हिंसा से कष्ट, भय, उपद्रव एवं पारलौकिक दुःख आदि होता है, इस तथ्य का दर्शन करना। (२) अहित - चिन्तन - हिंसा से आत्मा का अहित होता है, ज्ञान- दर्शन - चारित्र आदि की उपलब्धि दुर्लभ होती है, इस पर चिन्तन करना । (३) आत्म- तुलना - अपनी सुख-दुःख की भावना के साथ अन्य जीवों की तुलना करना । जैसे - मुझे सुखप्रिय है, दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरे जीवों को भी सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। यह आत्म-तुलना या आत्मौपम्य की भावना है। अहिंसा का पालन भी अंधानुकरण वृत्ति से अथवा मात्र पारम्परिक नहीं होना चाहिए, किन्तु ज्ञान और करुणापूर्वक होना चाहिए तथा अहिंसा की भावना को संस्कारबद्ध बनाना चाहिए यह उक्त तीन हेतुओं का फलितार्थ है । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है - इस सूत्र पर कई दृष्टियों से चिन्तन किया जा सकता है ( १ ) अध्यात्म का अर्थ है - आत्मा का स्वरूप - बोध | चेतन के स्वरूप का बोध हो जाने पर इसके प्रतिपक्ष 'जड़' का स्वरूप - बोध स्वयं ही हो जाता है। एक पक्ष को सम्यक् प्रकार से जानने वाला उसके प्रतिपक्ष को भी सम्यक् प्रकार से जान लेता है। (२) अध्यात्म का एक अर्थ है - आन्तरिक जगत् अथवा जीव की मूल वृत्ति-सुख की इच्छा, जीने की भावना । जो अपनी इन वृत्तियों को पहचान लेता है, वह बाह्य अर्थात् अन्य जीवों की इन वृत्तियों को भी जान लेता है । अर्थात् स्वयं के समान ही अन्य जीव सुखप्रिय एवं शान्ति के इच्छुक हैं, यह जान लेना वास्तविक अध्यात्म है। सब जीवों में समान चेतना का दर्शन करने से आत्म-तुला की धारणा संपुष्ट होती है। शान्ति-गत का अर्थ है-जिसके कषाय, विषय, तृष्णा आदि शान्त हो गये हैं । द्रव का अर्थ है - करुणा से भीगा हुआ अन्तःकरण । टीकाकार ने 'द्रविक' का अर्ध किया है- करुणाशील संयमी पुरुष । वह हर समय शान्त रहता है। Elaboration-Wherever beings exist air pervades. This gives rise to a natural doubt-is it possible to avoid violence against air-bodied आचारांग सूत्र ( ७० ) Illustrated Acharanga Sutra Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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