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________________ * इच्चत्थं गढिए लोए। जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकाय-कम्म-समारंभेणं तसकाय-सत्थं-समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति। से बेमि___ अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहति; अप्पेगे सोणियाए वहति, अप्पेगे हिययाए वहंति, एवं पित्ताए, वसाए, पिच्छाए, पुच्छाए, वालाए, सिंगाए, विसाणाए, दंताए, दाढाए, नहाए, पहारुणीए, अहिए, अट्टिमिंजाए। अट्ठाए अणट्टाए। ___ अप्पेगे हिंसिंसु मे त्ति वा, अप्पेगे हिंसंति वा, अप्पेगे हिंसिस्संति वा णे वहति। ___ ५३. वह संयमी, उस हिंसा को सम्यक् प्रकार से समझते हुए ग्रहण करने योग्य संयम में सावधान हो जावे। भगवान से या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात होता है कि “यह त्रसकायिक जीवों की हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।" फिर भी सुख-सुविधा में आसक्त मनुष्य नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रसकायिक जीवों का समारंभ करता है। त्रसकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों का भी समारंभ/हिंसा करता है। __मैं कहता हूँ___ कुछ मनुष्य अर्चा (देवता की बलि, औषधि या शरीर के शृंगार) के लिए जीव-हिंसा करते हैं; कुछ चर्म के लिए; कुछ माँस के लिए; कुछ रक्त के लिए; कुछ हृदय के लिए एवं पित्त, चर्बी, पंख, पूँछ, केश, सींग, विषाण (हाथी का दाँत), दाँत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि (हड्डी) और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ किसी प्रयोजनवश, कुछ निष्प्रयोजन (व्यर्थ ही) जीवों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि की हिंसा की थी) इस कारण (प्रतिशोध की भावना) से हिंसा करते हैं। कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजन आदि की हिंसा कर रहा है) इस कारण (प्रतीकार की भावना से) हिंसा करते हैं। कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजनादि की हिंसा करेगा) इस कारण (भावी आतंक/भय की संभावना या आशंका) से हिंसा करते हैं। VARIOUS REASONS FOR HARMING MOBILE-BODIED BEINGS 53. Properly understanding (the bad consequences of violence), he (a disciplined seeker) indulges in adaniya (practicing ascetic-discipline). * * आचारांग सूत्र Illustrated Acharanga Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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