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________________ [१४] रूपका कथन करना हो तव भेददृष्टिको प्रधान रखकर प्रामाणिक लोक भी ऐसा बोलते हैं कि चैतन्य यह आत्माका स्वरूप है । इस कथनसे यह सिद्ध है कि जो जो 'आकाशपुष्प' आदि विकल्प अशास्त्रीय है वह सब विपर्ययरूप हैं । और 'चैतन्य यह पुरुषका स्वरूप है ' इत्यादि जो जो विकल्प शास्त्रप्रसिद्ध है वह सब नयरूप होनेसे प्रमाणके एक देशरूप हैं । निद्रावृत्ति एकान्त अभाव विषयक नहीं होती। उसमें हाथी घोडे आदि अनेक भावोंका भी कभी कभी भास होता है, अर्थात् स्वम अवस्था भी एक तरहकी निद्रा ही है। इसी तरह वह सच भी होती है। यह देखा गया है कि अनेक वार जागरित अवस्थामें जैसा अनुभव हुआ हो निद्रामें भी वैसा ही भास होता है, और कभी कभी निद्रामें जो अनुभव हुआ हो वही जागनेके बाद अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है। स्मृति भी यथार्थ अयथार्थ दोनों प्रकारकी होती है। श्रतएव विकल्प आदि तीन वृत्तियोंको प्रमाण विपर्ययसे अलग कहनेकी खास आवश्यकता नहीं है। .. । सूत्र १६ -सूत्रकारने योगके उपायभूत वैराग्यके अपर और पर ऐसेदो भेद किये हैं, उनको जैन परिभाषामें उतारकर उपाध्यायजी खुलासा करते हैं कि-पहला वैराग्य 'आपातधर्मसंन्यास 'नामक है, जो विषयगत दोषोंकी भावनासे शुरू शुरूमें पैदा होता है। दूसरा वैराग्य तात्विकधर्मसंन्यास'
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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