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________________ (१५) होंगी । अस्तु, जो कुछ हो पर अब भी इतना सौभाग्य है कि मूल मूल वीसों विंशिकाएँ कुछ खंडित रूपमें, कुछ अशुद्धरूपमें भी उपलब्ध है । छाया सहित उनको प्रकाशित करनेका तथा हो सका तो साथ में हिंदी सार देनेका हमारा विचार है। हमारा निवेदन है कि जिनके पास उक्त सब विंशिकाएँ या उनकी अपूर्ण, पूर्ण टीकाएँ हों वे हमें सूचित करें; क्योंकि यह सार्वजनिक संपत्ति है, एकवार जैसा छपा प्रायः फिर वैसा ही रहता है । छपने के बाद लिखित प्रतियोंको कौन देखता है । इस दशामें छपानेसे पहले अधिकसे अधिक सामग्रीके द्वारा संशोधन आदि करना यही सच्ची श्रुत-भक्ति है । हमारा काम प्राप्त सामग्री का उपयोग करना मात्र है । इस लिए पुण्यशाली महानुभावोंका यह कर्त्तव्य है कि वे लिखित प्रति आदि अपने पास जो कुछ साधन हो उसको देकर प्रकाशकके निःस्वार्थ कार्यको सरल करें । पहले इस पुस्तकको पाँच सौ नकलें नीकलवानेका इरादा था पर पीछे हजार नकलें नीकलवानेका विचार हुआ । किन्तु उस समय एक तरहके उतने कागज न थे और न तुरत मिळ ही सकते थे, इसलिए निरुपाय होकर दो किसमके कागजों पर पाँच सौ पाँच सौ नकले नीकलवानी पड़ी हैं। फिर भी धारणासे कुछ अधिक मॅटर बढ जानेके कारण और कई दिनों तक कौशीश करने पर भी एक जातिके मोटे अॅन्टिक कागज न मिलने से अन्तमें लाचार होकर करीब दो फर्मे दूसरी किसमके मोटे कागज पर छपवाने पडे हैं । अस्तु जो कुछ हो बाह्य कलेवरमें थोडी सी विभिन्नता हो जाने पर भी पुस्तकका आन्तरिक स्वरूप एक ही प्रकारका है जिस पर वस्तुग्राही पाठक संतोष कर लेवें ।
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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