SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रोसवालों की उत्पत्ति जिनकी संख्या सामिल होकर ३८४००० घरों की हुई हो और यह बात सम्भव भी हो सकती है। आगे चलकर नूतन श्रावकों के कल्याणार्थ भगवान महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई, इसके विषय में पटावलीकार लिखते हैं सप्तत्या वत्सराणां चरम जिनपते मुक्तजातस्य वर्षे । पंचम्यां शुक्लपक्षे सुरगुरु दिवसे ब्राह्मणे सन्मुहूर्ते ॥ - रत्नाऽऽचायः सकलगुणयुतैः, सर्वसंघाऽनुज्ञातैः । श्रीमद्वीरस्य विम्बे भवशतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठा ॥१॥ - इस लेख में श्री वीर से सत्तर ७० वर्ष में आद्याचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में अजैनों को जैन बनाये और महावीर के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई यह स्पष्ट उल्लेख है । इस मन्दिर के साथ ही प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने कोरण्टपुर नगर में भी महावीर मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई जो इससे स्पष्ट होता है - उपकेशे च कोरण्टे, तुन्यं श्री वीरविम्बयोः । - प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या- श्री. रत्नप्रभसूरिभिः ॥१॥ .. "निज रूपेण उपकेशे प्रतिष्ठा कृता वैक्रय (विकृत ) रूपेण, कोर• ण्टके प्रतिष्ठा कृता श्राद्धै द्रव्य व्ययः कृतः इति ।" ... इस लेख में यह बतलाया है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने निजरूप से उपकेशंपुर और वैक्रय रूप से कोरण्टपुर * में अर्थात् एक हो लग्न मुहूर्त में दोनों मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई, ये दोनों मन्दिर श्राद्याऽवधि विद्यमान हैं, जिनका जीर्णोद्धार समय २ पर जरूर हुआ है, इन दोनों मन्दिरों की प्राचीनता के विषय में अनेक प्रमाण मिल सकते हैं जिन्हें हम आगे चलकर बतावेंगे। यहां तो केवल शंका का परिहार मात्र प्रभाविक चरित्र के मानदेवसूरि प्रबन्ध में यह उल्लेख मिलता है कि देवचन्द्रोपाध्याय कोरण्टा के महावीर मन्दिर की व्यवस्था करते थे। देवभद्रो पाध्याय का समय विक्रम की पहिली या दूसरी शताबी है, इसके पूर्व के कालिन समय का यह मन्दिर है। इसलिए यह मानना अनुचित नहीं है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि से प्रतिष्ठित उपकेशपुर के महावीर मन्दिर के समकालीन जो प्रतिष्ठा कराई वही मन्दिर कोरण्टा में विद्यमान हैं।
SR No.007293
Book TitleOswal Ki Utpatti Vishayak Shankao Ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1936
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy