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________________ प्रा० जै० इ० चौथा भाग और विशेष विहार इसी पवित्र भूमि में हुआ था अतएव यह प्रान्त जैन धर्म से परिपूर्ण था। . (७) कलिङ्ग प्रदेश । महाराज अशोक के राज्यकाल के पहले क्या राजा और क्या प्रजा सब लोग जैनधर्मोपासक थे । कलिङ्गपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेलने' जैनधर्म की उन्नति करने के हित प्रबल प्रयत्न किया था। उसके इस घोर परिश्रम का परिणाम स्वरूप जैन धर्म का प्रचार इस प्रान्त के बाहर भी खूब हुआ था वहाँ के वातावरण का तो क्या कहना ? इसके पश्चात् विक्रम की दशवीं शताब्दी तक तो इस प्रान्त के अन्तर्गत आई हुई कुमारगिरि की कन्दराओं में जैन श्रमण निवास करते थे । इस बात को प्रमाणित करने वाले शुभचन्द्र और कुलचन्द्र मुनियों के शिलालेखं पर्याप्त हैं। इसके आगे विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में इस प्रदेश में जैन राजा प्रतापरुद्र का शासन था। उस समय भी जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार हो रहा था। किन्तु सदा एकसी दशा प्रायः किसी की भी नहीं रहती । अब तो कलिङ्ग प्रदेश में केवल इने गिने जैन दृष्टिगोचर होते हैं जो वहाँ व्यौपार के लिए रहते हैं। दिनों का फेर इसे कहते हैं कि जहाँ एक दिन जिधर देखो उधर जैनी ही जैनी दिखाई देते थे वहाँ आज खोजने पर भी कठिनाई से दिखाई देते हैं । अहा ! काल तेरी भी विचित्र लीला है ! (८) पञ्जाब प्रान्त । इतिहास देखने से विदित होता है कि विक्रम पूर्व की तीसरी शताब्दी में जैनाचार्य देवगुप्तसूरिजी ने पजाब में पधार कर वहाँ इस धर्म की नींव दृढ़ की थी और १ देखो हमारा लिखा कलिङ्ग देश का इतिहास ।
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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