SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२० प्रा० जै० इ० चौथा भाग जाति प्रारम्भ में लाखों की संख्या में थी वही जाति मध्यकाल में क्रोड़ों की संख्या तक पहुंच गई। यदि उसी क्रम से महोदय होता रहता तो आज न मालूम जैन जाति किस उच्च पद पर दृष्टिगोचर होती किन्तु किसी ने सच कहा है कि होनहार ही बलवान है। ठीक वैसा ही हुआ । जब से उपकेशपुर के स्वयंभू महावीर स्वामी की मूर्ति की आशातना हुई है तब से इस जाति की खैर नहीं रही है। जैन जातियों की उन्नति के मार्ग में रोड़ा अटक गया है । ह्रास अपने चरम सीमा तक होने लगा। बीच बीच में दशा सुधारने के लिए तथा जैन जातियों की अभिवृद्धि के लिए अनेक जैनाचार्यों ने उपाय और प्रयत्न किये । समय समय पर अनेक राजाओं और राजपूतों आदि को इतर धर्म से प्रतिबोध दे दे कर जैन जातियों में मिलाते गये इस से जैन जातियों की संख्या चिरकाल तक अधिक बनी रही तथापि पूर्व की भाँति उस दशा का सुधार नहीं हुआ इतने में जो जैन समाज में अनेक मत मतान्तरों का प्रादुभाव हुआ और वह रही सही जैन जातियाँ अनेक विभागों में विभाजित हो अपनी अमूल्य शक्तियों और उच्चादर्श से भी हाथ धो बैठी इससे ही कई लोगों को यह कहने का समय मिल गया कि जैनाचार्यों ने यह बुरा किया कि राजपूत जैसे वीर बहादुर वर्ण को तोड़ जैन जातियाँ बना उनको कायर और कमजोर बना दिया। वास्तव में यह कहना कितना भ्रमपूर्वक है वह हम आगे चल कर विस्तारपूर्वक बतलावेंगे। एक तरफ तो पूर्वोक्त कारणों से जैन जातियों का ह्रास होना प्रारम्भ हुआ था दूसरी ओर ऐसे ऐसे असाध्य रोग लगने शुरू हुए कि जोकि जैन जातियों के खून को जौंक बनकर निरन्तर चूस रहे हैं। ऐसी ऐसी नाशकारी प्रथाओं ने जैन जातियों में
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy