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________________ १६ प्रा० जै० चौथा भाग इ० विक्रम को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया था; उसने भी जैनधर्म का खूब प्रचार किया था । उसने जी जान से प्रयत्न करके अपने साम्राज्य में जैनधर्म को खूब प्रसारित होने दिया । इसके अतिरिक्त राजा भोज के समय में भी जैन धर्म प्रचुरता से प्रचारित था । माण्डबगढ़ के पैथड नामक महामन्त्री और संग्राम सोनी के समय (वि० चौदहवीं शताब्दी ) तक भी जैन धर्म का उचित प्रचार जारी था और बुन्देलखण्ड के राजा भी प्रायः जैनधर्मोपासक ही थे । अर्थात् विक्रम की सोलहवीं शताब्दी तक तो जैन धर्म इस मालवा प्रान्त में उन्नत अवस्था में था किन्तु आज जो यहाँ के जैनी हैं वे तो मारवाड़ से गये हुए ही हैं । इस प्रान्त में अवन्ती, मक्क्षी और माण्डवगढ़ नगर में अति प्राचीन तीर्थ आजलों विद्यमान हैं । (१४) संयुक्तप्रान्त । इस प्रान्त में जैनधर्म प्राचीन समय से प्रचलित है । शौरीपुर, मथुरा, हस्तिनापुर आदि तीर्थ बड़े प्राचीन हैं । यह प्रान्त आजकल के कहलाए जानेवाले मध्यप्रान्त ( Central Provinces ) से भिन्न है । आचार्यश्री स्कन्धल सूरिजी ने मथुरा नगरी में एक बृहत् साधु सम्मेलन किया था तथा आगामों को पुस्तक के रूप में लिखाने का प्रस्ताव पास कर बहुत सा इस विषय सम्बन्धी कार्य भी किया था । हम बड़े कृतघ्न कहलावेंगे यदि उनके इस असीम उपकार को भूल जायँ । आज पर्यन्त इसी प्रयत्न के परिणाम स्वरूप माथुर वाचना लोक प्रसिद्ध हैं । क्यों न हो ? कोई भी किया हुआ सद् प्रयत्न कभी विफल नहीं हो सकता । इस प्रान्त में समय समय पर बड़े दानवीर नररत्नों का अवतरण हुआ है । विक्रम की नौवीं शताब्दी में ग्वालियर के नृपति आँम जैनधर्म उपासक ही नहीं वरन् परम
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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