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________________ प्राचीन जैन इतिहास संग्रह . ५० (५०) राणकदुर्ग का राजा शूरदेव-जैनराजा - आचार्य कक्कसरि भूभ्रमन करते हुए राणकदुर्ग पधारे । राजा प्रजा ने आपका अच्छा स्वागत किया सूरीश्वरजी का हमेशा उपदेश राजसभा में होता रहा, जिसका प्रभाव राजा पर इस प्रकार हुआ कि जिसने मांस मदिरादि दुर्व्यसनों का त्याग कर कई नागरिकों के साथ जैन धर्म स्वीकार किया इतना ही नहीं पर अपने नगर में भगवान् शान्तिनाथ का एक विशाल जैन मन्दिर बनवा के उसकी प्रतिष्ठा आचार्य ककसूरि से करवाई। धन्य है ऐसे धर्म प्रचारक श्राचार्य देवों को । * तदा श्री मरुकोटस्य, वीक्ष्यवप्रं पुरातनं । दृढं पृथु कर्तुममा जोइया त्वय संभवः ॥ काकुनामा मंडलिको, बलवान् बल वृद्धये । शुभेलग्ने शुद्ध भूमौ, गर्तापुमखानयत् ॥ खन्य माना ततो कस्मानिस्ससार जिने शितुः । बिम्ब श्री नेमिनाथस्य, वीक्षीतंमुमुदे नृपः॥ नूतनं परिकरं च, कारया मासिवा नृपः । श्री ककसूरिनर्थ्य प्रतिष्टां च व्यधापयत् ॥ . "उपकेश गच्छ चरित्र श्लोक" * सूरि राणकदुर्गे गाद्विहरमथ तत्प्रभुः । भुट्टास्वये सूरदेवो यति तं नं तुम स्वहं ॥ प्रबुधोय स्वीयपुरे श्री शान्तिनाथ जिन मन्दिरे । कारया मास भूपाल, प्रतिष्टांविदधे गुरुः ॥ . उपकेश गच्छ च० श्लोक ६१-६२
SR No.007288
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 02 Jain Rajao ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1936
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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