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________________ ( ३४ ) लगे कि मध्य भाग में आठ प्रतिहार्यवाले श्राप के पुत्र विराजमान हैं और आसपास देवों का समुदाय सेवा में उपस्थित हो उपदेश श्रवण कर रहा है। देखते देखते मरुदेवीजी के नेत्रों पर से पर्दा हठ गया और पुत्र को देव वैभव में देवता जिन की चाकरी में हाजीर हैं देखते ही मरुदेवीजी कहने लगी के हे पुत्र! इतना भारी वैभव देवरचित समवसरण और देवता तेरी सेवा में खडे हैं। इतना सुख पा जाने पर भी तूंने माता को कभी याद न की। मैं अभागिनी तुझे नित्य प्रति याद करती रही, और चिन्ता में थी के मेरा पुत्र दीक्षा ग्रहण किये बाद विहार कर गया है और न जाने वह कैसे कैसे कठिन परिषह सहन करता होगा ? लेकिन कोई किसी का नही है । किस का पुत्र और किस की माता । इस तरह मरुदेवीजी अनित्य भावना के ध्यान में मग्न हुई और तुरन्त ही हाथीपर बैठी हुई को केवलज्ञान प्राप्त हो गया और कुछ समय के अन्तर मोक्ष को सिधाई । पाठक ! समझ में आ गया होगा कि यही भाव श्रीकेसरियानाथजी के तीर्थ में बतलाया गया है कि सामनै श्रीऋषभदेव भगवान बिराजित हैं और उन की तरफ दृष्टि करती हुई मरुदेवीजी हाथीपर बैठी है-और मोक्ष सिधाई, जिस का यह अनुपम दृश्य श्वेताम्बरीय समाज की मान्यता का प्राचीन प्रमाण बतलाता है। अब बगीचे में जो भगवान के चरण स्थापित हैं उन का कुछ बयान करेंगे । यहां की यात्रा करनेवाले यात्री यह सुन चुके होंगे कि श्रीकेसरियानाथजी की प्रतिमा जमीन में से दैव
SR No.007283
Book TitleKesariyaji Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherSadgun Prasarak Mitra Mandal
Publication Year1934
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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