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________________ ( १०५ ) कायम रहेगी । इस के सिवाय एक स्पष्टीकरण और करते हुवे आप फरमाते हैं कि " सुना गया है के बडे हजूर समय वापस पधारते सामने जाने में कुछ कमी हो गई । सो काम कारणसर एसा हो गया हो तो मन में इस का अन्देशा न किया जावे अर्थात् आप नाराज न हो जांय | और आयन्दा के लिये फिर यकीन दिलाने को फरमाते हैं कि श्री माचार्यजी महाराज को जिस प्रकार माने गये हैं, और पटे, परवाने लिखे गये हैं उसी मुवाफ़िक आप को भी माने जावेंगे । और आप की गादीपर जो आवेगा उस की भी मानता रहेगा । इस के सिवाय आप के गच्छ का मन्दिर, उपाश्रय मेवाढ राज्य में होगा उस की मर्यादा बराबर चली आती है और आगे भी पालन होगा; बल्के अन्य गच्छ के भट्टारकजी आदि आयेंगे, वह भी आप के गच्छ के मन्दिर उपाश्रय का पूरा मान रखेंगे । आप दैवयात्रा आदि में हमें अवश्य याद करियेगा । इस तरह के लेख से स्पष्ट पाया जाता है कि आपने गुरुमहिमा बतला कर मानमर्यादा का पूर्ववत पालन करने कि प्रतिज्ञा कर भक्तिवश हो । दैवयात्रा में स्मरण करने बाबत सूचना फरमाते हैं । पाठक ! श्रद्धा भक्ति का कितना अच्छा ज्वलन्त उदाहरण है ? मन्दिरों की मानमर्यादा बराबर सुरक्षित रखने बाबत प्रतिज्ञा कर आपने जैन समाज को पूर्ण ऋणी बनादी है । आगे देखते हैं तो महाराणाधिराज राजसिंहजी जिन की राजधानी का मुख्य गांव राजनगर था और आप के मंत्री दयालशाह थे । महाराणा
SR No.007283
Book TitleKesariyaji Tirth Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherSadgun Prasarak Mitra Mandal
Publication Year1934
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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