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________________ ३२८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड · निर्दोष और सदोष चित्रकर्म का प्रतिपादन किया गया है । वृक्ष, पर्वत, नदी, समुद्र, भवन, दल्लि और लतावितान, तथा पूर्ण कलश और स्वस्तिक आदि मांगलिक पदार्थों के आलेखन को निर्दोष चित्रकर्म और स्त्रियों आदि के आलेखन को सदोष चित्रकर्म कहा है।' चित्र, भित्तियों और पट्टफलक के ऊपर बनाये जाते थे। चौंसठ कलाओं में निष्णात एक वेश्या का उल्लेख किया जा चुका है जिसने अपनी चित्रसभा में मनुष्यों के जातिकर्म, शिल्प और कुपित-प्रसादन का आलेखन कराया था। पट्टफलक पर बनाये हुए चित्र प्रेम को उत्तेजित करने में कारण होते थे। किसी परिब्राजिका ने चेटक की कन्या राजकुमारी सुज्येष्ठा का चित्र एक फलक पर चित्रित कर राजा श्रेणिक को दिखाया, जिसे देखकर राजा अपनी सुध-बुध भूल गया। सागरचन्द्र भी कमलामेला के चित्र को देखकर उससे प्रेम करने लगा था। चित्रसभाएँ प्राचीन काल के राजाओं के लिए गर्व की वस्तु होती थों । सैकड़ों खम्भों पर ये खड़ी की जाती थीं। राजगृह में इस प्रकार की चित्रसभा बनायो गयी थी। यह काष्ठकम, मसाले से बनायी गयी वस्तुओं (पोत्थकम्म), गुंथी हुई ( गंठिम = ग्रंथिम), वेष्टित की हुई (वेढिम् = वेष्टिम ), भरकर बनायी हुई ( पूरिम ), लथा जोड़ और मिलाकर बनाई हुई मालाओं (सघाइम-संघातिम) से सजायो गयी थी। क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा जितशत्र की चित्रसभा में अनेक चित्रकार काम करते थे। उनमें चित्रांगद नाम का एक वृद्ध चित्रकार भी था। एक बार, उसकी कन्या कनकमंजरी ने बैठे-बैठे फर्श ( कोट्रिमतल) पर रंगों से एक मयूरपिच्छ बना दिया। मयूरपिच्छ की रचना इतनी सुन्दर और स्वाभाविक थी कि राजा ने उसे सचमुच का पंख १. बृहत्कल्पभाष्य १.२४२९ । २. आवश्यकचूर्णी २, पृ० १६५ । ३. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका १७२ । ४. कुट्टिनीमत (१२४) में भी इसका उल्लेख है--पुस्तं काष्ठपुत्तलकादिरचनं । तदुक्तं-मृदा वा दारुणा वाऽथ वस्त्रेणाप्यय चर्मणा । लोहरत्नैः कृतं वाऽपि पुस्तमित्यभिधीयते । ५. शातृधर्मकथा १३, पृ० १४२ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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