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________________ च० खण्ड ] पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान ३२१ स्वरों के प्रकार जैन सूत्रों में षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद नामक सात स्वरों का उल्लेख है । इन स्वरों के अग्रजिह्वा, उर, कंठोद्गमन, मध्य जिह्वा, नासा, दंतोष्ठ और मूर्धा ( अनुयोगद्वार में भूतक्षेप ), ये क्रमशः सात स्वर-स्थान होते हैं। मयूर, कुक्कुट, हंस, गवेलग (गाय), कोकिल, क्रौंच और हस्ती से इन स्वरों का उच्चारण होता है । मृदंग, गोमुही ( काहला), शंख, झल्लरी, गोधिका ( चार पैरों से भूमि पर रक्खा जाने वाला वाद्य), आडम्बर ( पटह) और महाभेरो, इन वाद्यों से ये स्वर निसृत होते हैं। इसी प्रकार स्वरों के लाभ, उनके तीन ग्राम, ग्रामों की मूछनाएँ तथा उनके गुण और दोष का वर्णन किया गया है। वाद्य .. . .. . अनेक प्रकार के वाद्यों का उल्लेख जैन सूत्रों में उपलब्ध होता है। तत ( तन्तुवाद्य; जैसे वीणा ), वितत (मंढ़े हुए वाद्य; जैसे पटह आदि; हेमचन्द्र ने वितत के स्थान पर आनद्ध लिया है ), घन (कांस्यताल आदि), और झुसिर (शुषिर; फूंक से बजने वाले वाद्य; जैसे बांसुरी आदि ) नाम के चार प्रकार के वाद्य बताये गये हैं। राजप्रश्नीयसूत्र में निम्नलिखित वाद्यों का उल्लेख है । शंख, शृंग, शंखिका, खरमुही, पेया, पीरिपिरिया, पणव (छोटा पटह), पटह, भंभा (ढक्का), होरंभ (महाढक्का ), भेरी, झल्लरी, दुंदुभि, मुरज' ( संकटमुखी), १. स्थानांगसूत्र ७, पृ० ३७२-अ आदि; अनुयोगद्वार, पृ०.११७-अ आदि । २. स्थानांग ४, पृ० २७१-अ।। ३. इन वाद्यों की संख्या में अनेक पाठभेद हैं। राजप्रश्नीय के मूलपाठ में इनकी संख्या ४९ है, लेकिन पाठानुसार यह संख्या ५९ होती है। इस शंका का समाधान करते हुए टीकाकार ने लिखा है-मूलभेदापेक्षया आतोद्यभेदी एकोनपञ्चाशत् , शेषास्तु एतेषु एव अन्तर्भवन्ति, यथा वंशातोद्यविधाने वाली वेणुपिरिलीबद्धगाः इति, पृ० १२८ । .. . .. ४. कोलिक (शूकर.) पुटावनद्धमुखो वाद्यविशेषः, पृ० १२६ । ५. वृक्ष के एक भाग को भेदकर बनाया हुआ वाद्य । ६. महाप्रमाणो मर्दलः। २१ जै०भा०
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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