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________________ च० खण्ड ] पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान ३१५ सहायता से प्राप्त करते । कभी जूओं के काटने से उन्हें क्षय रोग हो जाता, अथवा खाने के भात में जूं पड़ जाने से वमन ( उध्व) अथवा जलोदर ( डउयर ) हो जाता। ब्रण-चिकित्सा । व्रणों ( फोड़ों) की चिकित्सा की जाती थी। जैनसूत्रों में दो प्रकार के कायव्रण बताये गये हैं :-तद्भव और आगंतुक । तद्भव व्रणों में कुष्ठ, किटिभ, दद्र , विकिञ्चिका ( ? विचि या = विचर्चिका = एक प्रकार की पामा), पामा और गण्डालिया (पेट के कीड़े) के नाम गिनाये गये है । जो खडग, कंटक, स्थाणू (ठूठ ) या शिरावेध से, या सप अथवा कुत्ते के काटने से उत्पन्न हो, उसे आगंतुक त्रण कहते हैं । वैद्य फोड़ा को पानी से धोकर साफ करत और उन पर तेल, घी, चर्बी और मक्खन आदि लगाते । फाड़ों पर भैंस, गाय आदि का गोबर लगाने का भी विधान है। बड़ आदि की छाल को वेदना शान्त करने के लिए काम में लेते थे। इसके सिवाय, गंडमाला, पिलग (पादगतं गंडं-चूर्णी), अर्श (बवासीर ) और भगंदर आदि रोगों का शस्त्रक्रिया द्वारा इलाज किया जाता। जैन साधुओं को गुदा और कुक्षि के कृमियों को उंगली से निकालने का निषेध है। युद्ध में खड्ग आदि से घायल होने पर उत्पन्न व्रणों (घावों) को मरहम-पट्टी वैद्य करते थे । संग्राम के समय वे औषध, व्रणपट्ट, मालिश का सामान, व्रण-संरोहक तेल, व्रण-संरोहक चुण, अति जीण घृत आदि साथ लेकर चलते, और आवश्यक पड़ने पर घावों को सीते । गम्भीर चोट आदि लग जाने पर भी वैद्य व्रणकर्म करते थे। सुदर्शन नगर में १-व्यवहारभाष्य ५.८९ । आवश्यकचूर्णी पृ० ४९२-९३ में विषमय लड्डू के भक्षण का असर शांत करने के लिये वैद्य द्वारा सुवर्ण पिलाने का उल्लेख है। २. निशीथचूर्णीपीठिका २६५ । ३. निशीथभाष्य ३.१५०१ । ४. निशीथसूत्र ३.२२-२४; १२.३२; निशीथभाष्य १२.४१९९।। ५. निशीथभाष्य १२.४२०१ । ६. निशीथसूत्र ३.३४ । ७. वही ३.४० । ८. व्यवहारभाष्य-५.१००-१०३ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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