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________________ च० खण्ड ] चौथा अध्याय : शिक्षा और विद्याभ्यास २८९ (घट ) चार प्रकार के बताये गये हैं :-छिद्र-कुट (जिस घड़े की तली फूटी हुई हो), खंड-कुट (जिसके कन्ने टूटे हुए हों), बोट-कुट (जिसका एक ओर का कपाल टूटा हुआ हो ) और सकल-कुट (जो घड़ा सम्पूर्ण हो)। कुछ शिष्य छिद्र-कुट के समान, कुछ खंड-कुट के समान, कुछ बोट-कुट के समान और कुछ सकल-कुट के समान कहे गये हैं। कुछ शिष्य चालिणी ( छलनी) के समान होते हैं। वे एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं। इसके विपरीत, कुछ शिष्य खउर (खपुर = तापसों का एक पात्र ) के समान होते हैं। जैसे खपुर में बेल और भिलावे के रस का लेप करने से, उसमें से पानी नहीं सिरता, इसी प्रकार शिष्य भी आचार्य के कथन को भली-भांति हृदयंगम करता है । शिष्यों की उपमा परिपूणग (घीदूध छानने का छन्ना) के साथ भी दी गयी है। जैसे छन्ने में घी छानने से घो नीचे चला जाता है और मैल ऊपर रह जाता है, इसी प्रकार कुछ शिष्य केवल दोष हो ग्रहण करते हैं, गुणों को ओर वे दृष्टि नहीं देते । इसके विपरीत, कुछ शिष्य हंस के समान होते हैं जो नीरमिश्रित क्षीर में से क्षोर को ग्रहण कर लेते हैं ओर नीर का परित्याग कर देते हैं। कुछ शिष्यों को उस महिष (भैंसा) के समान बताया गया है जो किसी तालाब में घुसकर उसके जल को गंदा कर देता है, और इस जल को न वह स्वयं पी सकता है और न उसके साथी । इसी प्रकार व्याख्यान के प्रारम्भ होने पर, शिष्य अनेक प्रकार की विकथाओं से आचार्य को ऐसा थका देता है कि न तो वे उसे व्याख्यान दे सकते हैं और न किसी अन्य गण को । लेकिन कुछ शिष्य मेंढ़े की भांति भी होते हैं, जो अपने मुंह को आगे की ओर झुकाकर, चुपचाप जल पोकर चले जाते हैं । ऐसे शिष्य आचार्य को उत्तेजित न कर उनसे शिक्षा ग्रहण करते हैं। कुछ शिष्य मच्छर के समान होते हैं जो बैठते ही काट लेते हैं। इसके विपरीत, कतिपय शिष्य शरीर को कष्ट पहुँचाये बिना ही चुपचाप रुधिर का पान करनेवाली जलुगा (जलौका = जोख) की भाँति होते हैं। ऐसे शिष्य आचार्य को कष्ट पहुँचाये बिना ही, श्रुतज्ञान का पान करते हैं। कुछ शिष्यों को उपमा मार्जारी (बिलाड़ी) से दी गयी है, जो दूध को जमीन पर गिराकर बाद में उसे चाटतो है। ऐसे शिष्य अहंकारवश, जब मण्डली में आचार्य का व्याख्यान होता है तब तो ध्यान देते नहीं, और सबके उठ जाने पर, जब लोग आपस में बात करते हैं तब पास में बैठकर सुनने की कोशिश करते १९ जै० भा०
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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