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________________ प्रस्तावना २९ वह अनित्य भी है। इसी तरह अनन्त गुण, शनि, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तु की निजी सम्पत्ति हैं। इनमें से हमारा स्वल्प ज्ञानलव एक एक अंश को विषय करके क्षुद्र मतवादों की सृष्टि कर रहा है । आत्मा को नित्य सिद्ध करने वालों का पक्ष अपनी सारी शक्ति आत्मा को अनित्य सिद्ध करने वालों की उखाड़ पाद में लगा रहा है तो अनित्यवादियों का गुट नित्यवादियों को भला बुरा कह रहा है। _महावीर को इन मतवादियों की बुद्धि और प्रवृनि पर तरस आता था। वे बुद्ध की तरह आत्मनित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदि को अध्याकृत (अकथनीय) कहकर वौद्धिक तम की सृष्टि नहीं करना चाहते थे। उनने इन सभी तत्वों का यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्यों को प्रकाश में लाकर उन्हें मानस समता की समभूमि पर ला दिया। उनने बनाया कि वस्तु को तुम जिस दष्टिकोण से देख रहे हो वस्तु उतनी ही नहीं है, उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता है, उसका विराट स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम होता है उसका ईमानदारी से विचार करो, वह भी वस्तु में विद्यमान है। चित्त से पक्षपात की दुरभिसन्धि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण को भी उतनी ही प्रामाणिकता मे वस्तु में बोजो वह वहीं लहरा रहा है। हाँ, वस्तु की सीमा और मर्यादा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। तुम चाहो कि जड़ में चेतनत्व खोजा जाय या चेतन में जड़त्व, तो नहीं मिल सकता क्योंकि प्रत्येक पदार्थ के अपने अपने निजी धर्म निति हैं। मैं प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक कह रहा हूँ, सर्वधर्मात्मक नहीं । अनन्त धर्मों में चेतन के सम्भव अनन्त धर्म चेतन में मिलेंगे तथा अचेतन गत सम्भव धर्म अचेतन में । चेतन के गुण-धर्म अचेतन में नहीं पाये जा सकते और न अचेतन के चेनन में । हाँ. कुछ ऐसे सामान्य धर्म भी हैं जो चेतन और अचेतन दोनों में माधारण रूप से पाए जाते हैं। तात्पर्य यह कि वस्तु में बहुत गुंजाइश हैं। वह इतनी विराट है जो हमारे तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोणों से देखी और जानी जा सकती है । एक क्षुद्र-दृष्टि का आग्रह करके दूसरे की दृष्टि का तिरस्कार करना या अपनी दृष्टि का अहंकार करना वस्तु के स्वरूप की नासमझी का परिणाम है । हरिभद्रसरि ने लिखा है कि-- ''आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥'-लोकतत्वनिर्णय] अर्थात-आग्रही व्यक्ति अपने मतपोपण के लिए युक्तियाँ हूँदना है, युक्तियों को अपने मत की ओर ले जाता है, पर पक्षपातरहित मध्यस्थ व्यक्ति युक्तिमिद्ध, वस्तुस्वरूप को स्वीकार करने में अपनी मनि की सफलता मानता है। __ अनेकान्त दर्शन भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूप की ओर अपने मत को लगाओ न कि अपने निश्चित मत की ओर वस्तु और युक्ति की खींचातानी करके उन्हें बिगाड़ने का दुष्प्रयास करो, और न कल्पना की उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तु की सीमा को ही लाँघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमता के लिए यह वस्तुस्थितिमूलक अनेकान्त तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस नरतनधारी को ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानी में है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है। और वह किस दुरभिमान से हिंसक मतवाद का सर्जन करके मानवसमाज का अहित कर रहा है। इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्त दर्शन से विचारों में या दृष्टिकोणों में कामचलाऊ समन्वय या ढीलादाला समझौता नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूप के आधार से यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक समन्वय दृष्टि प्राप्त होती है। ___डॉ. सर राधाकृष्णन् इण्डियन फिलासफी (जिल्द १ पृ० ३०५-६) में स्याद्वाद के ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि-'इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्य का ही ज्ञान हो सकता है, स्याद्वाद से हम पूर्ण सत्य को नहीं जान सकते । दूसरे शब्दों में-स्याद्वाद हमें अर्धसत्यों के पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्धसत्यों को मिलाकर एक साथ रख देने से वह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता।" आदि ।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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