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श्री अमितगति श्रावकाचार
परात्मवैरिणां नैतन्नास्तिकानां कदाचन । जायते वचनं तथ्यं, विचारानुपपत्तितः ॥८॥
श्रथं - यहु परके वा आपके वैरी जे नास्तिक तिनका पूर्वेकह्या जो यहु वचन सो कदाचित् सांचा न सोय है, जातें विचार विषै अनुपपत्ति है ॥८॥
भावार्थ- पूर्वे कह्या नास्तिकका वचन विचार किये ठा
भास है—
आगे जीवका अस्तित्व साधें हैं
विद्यते सर्वथा जीवः, स्वसंवेदनगोचरः ।
सर्वेषां प्राणिनां तत्र, बाधकानुपपत्तितः ॥६॥
अर्थ – स्वसंवेदनके गोचर कहिए जाननेंमें आवे ऐसा जीव है सो सर्वथा विद्यमान है, जातें तहां सर्व जीवनिकौं बाधक प्रमाण की अनुपपत्ति है ।
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भावार्थ - स्वसंवेदन विषै कोई प्रकार बाधा नहीं आवे है । आताही अर्थ पुष्ट करें हैं
शक्यते न निराकत्त", केनाप्यात्मा कथंचन । स्वसंवेदन वेद्यत्वात्सुखदुःखमिव
स्फुटम् ॥१०॥
अर्थ- कोऊ करि भी आत्मा है सो निराकरण करनेकू कोई प्रकार समर्थ न हूजिये है, जातै आत्माक स्वसंवेदन करि प्रगट जाननेकौं योग्यपनां है, सुख दुःखकी ज्यों ।
भावार्थ - जैसे सुख दुःख आपकरि जाननेंमें आवे है तैसें आप भी आप करि जानने में आवै हैं तातैं अभावरूप नाहीं ॥१०॥
आताही अर्थ पुष्ट करें हैं
ग्रहं दुःखी सुखी चाहमित्येषः प्रत्ययः स्फुटम् । प्राणिनां जायतेऽध्यक्षो, निर्बाधो नात्मना विना ॥११॥