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तृतीय परिच्छेद
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- मिथ्यात्व अर अव्रत अर क्रोधादि कषाय अर योग इनकरि जो कर्म उपार्जन करिये है सो कर्म सम्यक्त्व व्रत क्रोधाधिकका निग्रह योगनिका रोकना इनि करि दूरि करिए है । मिथ्यात्वादि भावकरि द्रव्यकर्मका आस्रव होय है ताहि सम्यक्त्वादि भाव करि रोके द्रव्यसंवर हो है ॥ ६१ ॥
ऐसा द्रव्यसंवरका स्वरूप जानना, आगैं निर्जरा तत्वका वर्णन
करें हैं;
पूर्वोपाजित कर्मै कदे संक्षय क्षणा ।
सविपाकाविपाका च द्विविधा निर्जराऽकथि ॥ ६३ ॥
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अर्थ - पूर्वोपार्जित कर्मनिकी एकदेश क्षय है लक्षण जाका ऐसी नाना प्रकार ( दोय प्रकार ) सविपाका अर अविपाका निर्जरा कही ॥ ६३॥
तिनका स्वरूप कहैं हैं; -
यथा फलानि पच्यन्ते, कालेनोपक्रमेण च ।
कर्माण्यपि तथा जन्तोरुपात्तानि विसंशयम् ॥ ६४ ॥
अर्थ – जैसैं फल हैं ते अपने कालकरि तथा पाल आदि उपक्रम करि पकें हैं तैसे जीव के ग्रहण करे कर्म हैं ते भी अपनी स्थितिरूप कालकरि तथा तपश्चरणादिककरि निःसंदेह पकै खिरैं हैं || ६४ ॥
नेहसा या दुरितस्य निर्जरा, साधारणा सा परकर्मकारिणी ।
विधीयते या तपसा महीयसा, विशेषणी सा परकर्मवारिणी ॥ ६५ ॥
श्रर्थ-ज्यो कालकरि कर्मकी निर्जरा है सो साधारण है सर्व जीवनक है अर और कर्म करनेवाली है ।
भावार्थ - सविपाक निर्जरा तो अपनी स्थिति पूरि करि समयप्रबद्ध मात्र कर्म सबही खिरैं हैं तातें साधारण हैं, अर ताके उदयतैं जीवकैं राग द्वेष होय ताकरि आगामी कर्मबन्ध होय है ।
अर जो