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________________ श्री अमितगति श्रावकाचार - संसारकी स्थितिका जाननेवाला अर सम्यग्दर्शनकरि शोभित ऐसा जो जीव ताविषै दुःख नहीं तिष्ठे है । जैसे ग्रीष्मके सूर्य की किरणकरितप्त जो क्षेत्र ता विषै शोतकी स्थिति कहांत होय ? अपितु नाहीं होय है ॥ ४२ ] १ भुवनजनताजन्मोत्पत्तिप्रबन्धनिषूदनी, जिनमतरुचिश्चिता मण्या यकैद्दपमीयते । त्रिदशसरणि ते भाषन्ते समां परमाणुना, प्रभवतिमतिमिथ्या मिथ्यादृशामथ वा सदा ॥८६॥ अर्थ - लोकके जीवनिकैं संसार की उत्पत्ति के प्रबन्ध की नाश करने वाली ऐसी जो जिनमतकी रुचि श्रद्धा सो जिनकरि चिंतामणिकरि उपमा दोजिये (जिनमतकी श्रद्धाकौं चिंतामणिकी उपमा देय हैं) ते आकाशकौं परमाणु के समान कहै हैं । अथवा मिथ्यादृष्टिकी बुद्धि सदा मिथ्यारूप होय ही हैं ताका कहा आश्चर्य है ? अवहितनाः सद्मोत्संगं निधानमिवोत्तमं नयति हृदयं यः सम्यक्त्वं शशांककरोऽञ्जलम् । श्रमित गयः क्षिप्रं लक्ष्म्यः श्रयन्ति तमाहता, निरुपमगुणाः कांतं कांतं स्वयं प्रमदा इव ॥६०॥ अर्थ - जैसौं एकाग्र है मन जाका ऐसा पुरुष घर के मध्यभाग प्रति निधान कौं प्राप्तकरै तैौं जो हृदय प्रति चन्द्रमाकी किरण समान उज्ज्वल सम्यक्त्वकौं प्राप्त करे है, ता पुरुषकौं जैसे सुन्दर पतिकौं आदर सहित स्त्री हैं ते स्वयमेव शीघ्र ही सेवौ है तैौं उपमा रहित हैं गुण जिनके अर प्रमाण है ज्ञानदर्शन जिन विषै ऐसी आदर सहित इन्द्रादिपदकी लक्ष्मी स्वयमेव सेव है || १. 'जन्मोत्पत्ति' के स्थान पर नष्टोत्पत्ति, पाठ ठीक है ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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