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________________ द्वितीय परिच्छेद , विवेको हन्यते येन मूढता येन जन्यते । मिथ्यात्वतः परं तस्मात, दुःखदं किमु विद्यते ॥ ३८ ॥ प्रर्थ - जिस करि विवेक हनिये हैं अर अचेतपना उपजाइये है, तामिथ्यात्व सिवाय कहा और दुःख देने वाला है ? अपितु नांहि है ॥ ३८॥ लब्ध जन्मदलं तेन, सार्थकं तस्य जीवितम् । मिथ्यात्वविषमुत्सृज्य, सम्यक्त्वं येन गृह्यते ॥३६॥ [ २६ श्रथ जिस जीव करि मिथ्यात्वविषकों त्यागिकें सम्यक्त्वक ग्रहण करिये हैं, तिस जीव करि जन्मका फल पाया, अर ताका जीवना सार्थक है प्रयोजन सहित है ॥ ३६॥ भव्य पंचेन्द्रियः पूर्णो, लब्धकालादिलब्धिकः । पुद्गलार्द्ध परावर्त्ती काले, शेषे स्थिते सति ॥४०॥ अन्तर्मुहूर्त्त कालेन, निर्मलीकृत मानसः । श्राद्यं गृह्णाति सम्यक्त्वं, कर्मणां प्रशमे सति ॥ ४१ ॥ अर्थ - भव्य जीव पंचेन्द्रिय पर्याप्तक अर पाई है कालादिलब्धि जानें अर्द्ध पुद्गल परिवर्तनकाल बाकी रहे सन्तें अन्तर्मुहूर्त्त काल करि निर्मल किया है मन जानें ऐसो जीव कर्मनिका उपशम होतेसन्तें प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करें हैं ॥४०-४१।। निशीथं वासरस्येव, निर्मलस्य मलीमसम् । पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्त्वस्यास्य निश्चितम् ॥४२॥ 1 अर्थ – जैसें निर्मल दिनके पाछें अवश्य मलिन रात्रि आवै है तैसें इस प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त्त पाछें अवश्य मिथ्यात्व आवै है ॥ ४२ ॥ तस्य प्रपद्यते पश्चान्महात्मा कोऽपि वेदकम् । तस्यापि क्षायिकं कश्चिदासन्नीभूतनिर्वृतिः ॥४३॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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