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पंचदश परिच्छेद
अब आचार्य अपने गुरुकी परिपाटी कहैं हैं
अभूत्समो यस्य न तेजसेनः, स शुद्धबोधोऽजनि देवसेनः । मुनीश्वरो निर्जितकर्मसेनः पादारविदप्रणतेंद्रसेनः ॥ १ ॥
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कत्त: प्रशस्तिः ।
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प्रार्थनिर्मल है ज्ञान जाका ऐसा सो देवसेन नामा आचार्य मुनिनका ईश्वर प्रगट होता भया तेज करि सूर्य जाके समान न होता भय कैसा है सो आचार्य जीती है कामकी सेना जानै, बहुरि चरणकमलति विषे नम्रीभूत भए हैं इंद्रनिकी सेवा कहिए देवनिका समूह जाकै ऐसा
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दोषांधक रपरिमर्दनवद्धकक्षो, भूतस्ततोऽमितगतिर्भुवनप्रकाशः ।
तिग्मद्य तैरिव दिन : कमलावबोधी, मार्गप्रबोधनपरो बुधपूजनीयः ॥ २ ॥
अर्थ- तिस देवसेन आचार्यका शिष्य लोककौं प्रकाश करनेवाला अमितगतिनामा आचार्य भया, कैसा है सो मिथ्यात्वादि दोषरूपी अन्धकारके नाश करनेकौं बांधी है कमर जानें सौ जैसें सूर्यंतें कमलनिका प्रफुल्लित करनेवाला अर मार्गकौं प्रगट करने मैं तत्पर ऐसा पंडितनि करि पूजनीक दिन प्रगटै तैसें देवसेन आचार्य के शिष्य अमितगति सो भी कमला कहिए लक्ष्मी ताकौं प्रफुल्लित करनेवाला अर मोक्षमार्गका प्रगट करनेवाला अर पंडितनि करि पूजनीक होता
भया ॥२॥
विद्वत्समूहाचित चित्रशिष्यः, श्रीनेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः । श्रीमाथुरानूकनभः शशांक, सदा विधूताऽऽर्हततत्वशंकः ॥ ३॥