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________________ ३७६ ] श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ – मैं नगर मैं बसू हूँ बनमैं बसू हूँ ऐसी यहु बुद्धि आत्मज्ञान रहित मिथ्यादृष्टीनिकै होय है । बहुरि देख्या है तत्व जिननें ऐसे सम्यग्दृष्टी निकै अविनाशी, नित्य, निर्मल ऐसा जो आत्मा सो ही निवास है ॥८६॥ शुद्धस्य जीवस्य निरस्तमूत्त: सर्वे विकाराः परकर्मजन्याः । मेघादिजन्या इव तिग्मरश्मेविनश्वराः संति विभास्वरस्य ॥८७॥ अर्थ - अमूर्त्तीक जो शुद्ध आत्मा ताकं समस्त विकार हैं तें कम दयतें उपजै हैं । भावार्थ - द्रव्यदृष्टि करि देखिए तौ विकार कर्मजनित है किछु आत्माके स्वभाव नाहीं; जैसें देदीप्यमान जो सूर्य ताके विनाशीक विकार ( हूँ थोड़ा प्रकाश होना कहूँ बहुत प्रकाश होना इत्यादिक) वादला आदिके निमित्तसें होय है, स्वभावज नित नाहीं ॥ ८७ ॥ दृष्टात्मतत्वो द्रविणादिलक्ष्मीं, न मन्यते कर्मभवां स्वकीयाम् विपक्षलक्ष्मीं भुवने विवेकी, प्रपद्यते चेतसि कः स्वकीयाम् ॥८८॥ अर्थ- देख्या है आत्माका स्वरूप जानें ऐसा पुरुष है सा कर्मोदय करि उपजी जे धनधान्यादिकी लक्ष्मी ताहि आपकी न मान | लोक विषै ऐसा कौन विवेको है जो शत्रुकी लक्ष्मीकौं चित्त विषे आपकी मानं ॥ ८८ ॥ ज्ञानदर्शनमयं निरामयं मृत्युसंभवविकारवजितम् । श्रामनंति सुधियोऽत्र चेतनं, सूक्ष्ममव्ययमपास्त कल्मषम् । ८६ ॥ अर्थ - लोक विषं पंडित हैं ते आत्माकौं ऐसा माने हैं:
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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