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________________ श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ-योग्य अयोग्यके विवेकरहित मूढ है दृष्टि जाकी ऐसा पुरुष सो रागी देव अर परिग्रहधारी गुरु, जीवनिकी हिंसारूपं धर्म ऐसे कहैं हैं यह विपरीत मिथ्यादृष्टि लक्षण कहा है ॥ १२ ॥ २४ ] सप्तप्रकार मिथ्यात्वमोहितेनेति जन्तुना । सर्वं विषाकुलेनेव विपरीतं विलोक्यते ॥ १३॥ , अर्थ -- ऐसे सातप्रकार मिथ्यात्वकरि मोहित जो जीव ताकरि विषाकुलकी ज्यौं सर्व विपरीत देखिए हैं ।। १३ ॥ न तत्वं रोचते जीवः कथ्यमानमपि स्फुटम् । कुधीरक्तमनुक्तं वा, निसर्गेण पुनः परम् ॥ १४॥ अर्थ - कुबुद्धि जीव प्रगट उपदेश्या तत्वकौं भी नहीं श्रद्धान करें है । बहुरि का वा विना कह्या जो अतत्व ताहि स्वभावकरि ही श्रद्धान करै है ॥१४॥ पठन वचो जैनं, मिथ्यात्वं नैव मुञ्चति । कुदृष्टिः पन्नगो दुग्धं, पिवन्नपि महाविषम् ॥१५॥ अर्थ- जैसे दुग्धको पीवता भी सर्प महाविषकों न त्यागे है तैस मिथ्यादृष्टि जीव जिनवचनकौं पढ़ता भी मिथ्यात्वको न त्याग है ॥ १५ ॥ उदये दृष्टिमोहस्य, मिथ्यात्वं दुःखकारणम् । घोरस्य सन्निपातस्य, पंचत्वमिव जायते ॥ १६ ॥ अर्थ – जैसे घोर सन्निपातके उदय होतसंत मरण होय है तैसें दर्शनमोहका उदय होतसंते दुःखका कारण मिथ्यात्व होय है ॥ १६ ॥ बहु बध्नाति यः कर्म्म, स्तोक भुक्त कुदर्शनं । -- स भवाण्यदुः खेभ्यो, विमोक्षं लक्ष्यते कथं ॥१७॥ अंजन वल्भमावस्य, पुरुषस्य दिने दिने । धानस्य गृह्णतः खारी, कहा धान्यविमुक्तता ॥ १८॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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