SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२] श्री अमितगति श्रावकाचार - प्रतत्वमपि पश्यंति, तत्वं मिथ्यात्वमोहिताः । मन्यते तृषितास्तोयं, मृगा हि मृगतृष्णिकां ॥३॥ अर्थ-मिथ्यात्व करि मोहित जीव हैं ते अतत्वकौं तत्व माने हैं, जैसें तिसारा मृग हैं ते मृगतृष्णाकू निश्चय करि जल माने हैं ।।३।। विभ्रांता क्रियते बुद्धिर्मनोमोहनकारिणा । मिथ्यात्वेनोपयुकेन, मद्य नेव शारीरिणः ॥४॥ मर्थ-मनकों अचेत करनेवाला उपयुक्त भया जो मिथ्यात्व ताकरि मदिराकी ज्यौं जीवकी बुद्धि विशेष भ्रांतिरूप करिये हैं ॥४॥ पदार्थानां जिनोक्तानां, तदश्रद्धान लक्षणम् । ऐकांतिकादिभेदेन, सप्तभेदमुदाहृतम् ॥५॥ अर्थ-जिन भाषित जीवादिक पदार्थनिका अश्रद्धान है लक्षण जाका ऐसा, सो मिथ्यात्व ऐकांतिक आदि भेद करि सात प्रकार कह्या है ॥५॥ अब एकांत, संशय, विनय, गृहीत, विपरीत, निसर्ग, मूढदृष्टि, ऐसे सात प्रकार मिथ्यात्व का स्परूप कहैं है, क्षणिकोऽक्षणिको जीवः, सर्वथा सगुणोऽगुणः । इत्यादि भाषमाणस्य, तदैकांतिकमिव्यते ॥६॥ अर्थ-जीव एकान्त करि सर्व प्रकार क्षणिक ही है, वा नित्य ही है, वा निर्गुण ही है, वा सगुण ही है, इत्यादिक कहनेवाले के एकांत मिथ्यात्व कहिए ॥६॥ सर्वज्ञेन विरागेण, जीवाजीवादि भाषितम् । तय्यं न वेति संकल्पे, दृष्टि: सांशयिकी मता ॥७॥ मर्थ-सर्वग्य वीतराग करि कह्या जो जीव अजोव आदि तत्व सो सत्य हैं अथवा असत्य हैं ऐसे विकल्प होतेसंतें संशयजनित दृष्टि कही भावार्थ-सो संशयमिथ्यात्व कह्या है ॥७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy